हरिसिंह नलवा की गाथा।


हरिसिंह नलवा की गाथा।

भारतवासियों ने अपने देश की भूमि को माता के रूप में माना है। स्वयं को भारत माता की सन्तान कहकर वे गौरव का अनुभव करते आ रहे हैं। आदि काल से आरम्भ कर अंग्रेजों के भारत छोड़ने तक अटक से कटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस देश का विस्तार था। आदिकाल में तो अटक से परे भी भारत ही था, क्योंकि हमारा शान्तिमय विस्तारवाद असीम था और सारा संसार उसका क्षेत्र रहा है। हमारी नीति का आधार सत्य, न्याय और संस्कृति रहा है।

शान्ति और धैर्य के साथ भारतवासी विश्व का उत्थान और पतन निहारते रहे हैं। अपने शान्तिमय पथ की रक्षा और अपनी मर्यादा के निर्वाह के लिए भारतवासी समय-समय पर आहुतियाँ भी देते रहे हैं। भारत इस सत्य को स्वीकार करता रहा है कि देश के लिए किया गया कोई भी बलिदान सर्वोत्तम बलिदान होता है। बलिदानी भारत का इतिहास साक्षी है कि अपने देश की शान्ति की सुरक्षा के लिए हमारी वीरता की परम्परा जीवित रही है। सत्य एवं शान्ति के पथ पर भारत अपने शौर्य तथा बलिदान का इतिहास लिखता रहा है। भारत सत्य का देश और संकल्प की भूमि है।

हरिसिंह नलवा का जीवन भी शौर्य और वीरता से ओत-प्रोत है। वीरता का प्रदर्शन और अवसर आने पर प्राण भी न्यौछावर करने की भावना भारत की उसी वीर परम्परा के अनुसार है जो हमारे बलिदानियों, क्रान्तिकारियों, राष्ट्रीय नेताओं तथा देशवासियों ने भारत माता की प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए आदिकाल में ही स्थापित कर दी थी। हमें अपनी उस परम्परा पर गर्व है। वीरता की प्राचीन पृष्ठभूमि से वर्तमान तक की श्रृंखला में अगणित अनमोल कड़ियाँ पिरोई हुई हैं।

भारतीय इतिहास का एक ऐसा ही विजय-प्रतीक है सेनापति हरिसिंह नलवा। यह हरिसिंह नलवा की असीम शक्ति और अदम्य साहस का ही परिणाम था कि भारत पर हो रहे अफगानी आक्रमण की धारा पीछे की ओर मुड़ गई। वह ऐसा प्रतापी पुरुष था कि जिसके नाम से आज भी अफगानी माताएँ अपने नन्हे बालकों को डराया करती हैं। यह हरिसिंह नलवा का ही पराक्रम था कि महाराजा रणजीतसिंह के छोटे-से राज्य को इतना बड़ा विस्तार मिल पाया था। जिन अफगानों को अंग्रेज सरकार सीधा न कर सकी थी और अपने बहुत-से जन-धन की हानि उठाकर जिसको काबुल से भागना पड़ा था।

महाराजा रणजीतसिंह की सेना ने, जिसका नेतृत्व नलवा ने किया, उनके सभी छल-बल निकाल डाले थे। तभी तो किसी इतिहासकार ने नौशहरा के भीषण युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा है-'युद्ध करने में तो पठान और हिन्दू एक समान हैं। किन्तु दोनों में अन्तर यह है कि हिन्दू हारते हुए भी मैदान को नहीं छोड़ते जबकि पठान हार होती देख मैदान छोड़कर भाग जाया करते हैं।"

कहते हैं कि जब डेरा इस्माइल खाँ और गाजी खाँ के पठान सरदारों ने हिन्दू आक्रमणों को रोकने के लिए एक बूढ़े नवाब को पत्र लिखा कि "हमने मुकाबले का इरादा किया है, तुम हमारे साथ मिल जाओ, खुदा पर भरोसा है, वह भी हमारी मदद करेगा।" तो इसके उत्तर में उस बूढ़े नवाब ने लिखा था-'मुकाबले की तैयारी जरूर करो पर खुदा का भरोसा छोड़ दो। क्योंकि खुदा अब हिन्दू हो चुका है।

नलवा की वीरता की जब सब स्थानों पर चर्चा होने लगी तो कुछ लोगों ने कहना आरम्भ किया कि प्रारम्भ में नलवा इतना साहसी और निडर नहीं था। किन्तु एक घटना ने उसे निडर बना दिया और उसके बाद उसकी जीवन-मीमांसा ही बदल गई।

हुआ यों कि एक बार युद्धक्षेत्र में हरिसिंह के समीप ही एक गोली आकर गिरी। गोली एक पत्थर को लगी और पत्थर चकनाचूर हो गया। किन्तु आश्चर्य की बात कि उसके नीचे एक चुहिया थी, जो पत्थर के टुकड़े बिखरने पर भी न केवल जीवित रही अपितु किसी प्रकार भी आहत हुए बिना वहाँ से उछली और भागकर किसी अन्य स्थान पर जाकर छिपने का यत्न करने लगी।

यह देख हरिसिंह नलवा को विश्वास हो गया कि जब तक किसी की मृत्यु समीप न आ जाए गोलियों की बौछार में भी उसका कोई बाल-बाँका नहीं कर सकता। उसको इस दोहे का स्मरण हो आया।

जाको राखे साइयाँ मार सके नहिं कोय। बाल न बाँका कर सकै, जो जग वैरी होय। जो कुछ इस दोहे में कहा गया है वह अक्षरशः सत्य है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं। क्योंकि इस प्रकार की घटनाएँ समयसमय पर घटित होती रही हैं और प्राणी बाल-बाल बचता रहा है।

जन्म एवं बाल्यकाल

पश्चिम पंजाब का जो भाग अब पाकिस्तान में है उसमें एक स्थान का नाम है गुजरांवाला। हमारे नायक हरिसिंह नलवा का यही जन्म स्थान है। उनके पिता का नाम सरदार गुरुदयाल सिंह उप्पल था। 'सुक्र चकियां मिसल' नाम से सिक्खों की एक प्रसिद्ध मिसल अर्थात् सेना थी। सरदार गुरुदयालसिंह उप्पल उसके नायक थे। उन्हीं के यहाँ माता धर्मकौर की कोख से हमारे नायक नलवा ने सन् 1791 में जन्म लिया था।

बालक का नाम हरिसिंह रखा गया। कहावत है, 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात।' उसके अनुसार हमारे इस होनहार बिरवा के चीकने पात के लक्षण भी बचपन में ही दिखाई देने लगे थे। बालक जब कुछ समझने योग्य हुआ तो उसके पिता ने एक सिक्ख विद्वान और एक मौलवी को उसकी शिक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। सिख अध्यापक उसको पंजाबी पढ़ाता था तथा मौलवी फारसी। उन दिनों पढ़ाई की लगभग यही विधि प्रचलित थी।

बालक हरिसिंह होनहार अवश्य था। किन्तु न जाने क्यों विधाता उससे रूठ गया था कि असमय में ही उसके सिर पर से उसके पिता का प्यार भरा हाथ उठ गया। जिस समय हरिसिंह के पिता का देहान्त हुआ उस समय उसकी आयु केवल 7 वर्ष की थी। क्या जानता है 7 वर्ष का बालक? पिता तो केवल उसके जन्मदाता ही रहे, पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा वे कुछ भी नहीं कर पाये। हरिसिंह की माता अपने एकमात्र पत्र को लेकर अपने भाई के घर चली गई। आगे की बाल्यावस्था उन्होंने अपने मामा के घर पर बिताई।

हमने आरम्भ में ही लिखा है कि बालक बड़ा होनहार था। उसकी बुद्धि बड़ी विलक्षण थी और उसकी धारणा शक्ति भी अद्भुत थी। जिस किसी वस्तु को वह एक बार देख या सुन लेता था फिर सहज ही वह उसको भूलता नहीं था। अपने मामा के घर पर रहते हुए चौदहपन्द्रह वर्ष की आयु में ही किशोर हरिसिंह ने युद्ध-विद्या में अच्छी निपुणता प्राप्त कर ली थी। धनुष-बाण चलाना, खड्ग चलाना, भाला फेंकना तथा घुड़सवारी में वह भलीभाँति पारंगत हो गया था।

सरदार हरिसिंह का डील-डौल काफी ऊँचा था। उनका शरीर गठा हुआ था। कहते हैं कि उनके शरीर में बिजली की सी चुस्ती और फुर्ती थी। उनके नेत्रों में एक विशेष प्रकार का सम्मोहन था। बड़े-बड़े योद्धा भी उनसे आँख नहीं मिला पाते थे। कथा प्रसिद्ध है कि सन् 1823 में अफगानिस्तान का वीर योद्धा मोहम्मद आजिम खाँ बरकजाई युद्ध क्षेत्र में जब सरदार हरिसिंह के सामने प्रत्यक्ष लड़ने के लिए आया तो उनसे आँखें मिलते ही वह युद्धभूमि से भाग गया।

विधाता ने उन्हें ऐसा मनोहर रूप, सुडौल शरीर, बलिष्ठ भुजाएँ और अद्भुत शक्ति प्रदान की थी कि देखते ही दर्शक उन पर मुग्ध हो जाता था। वे केशधारी नहीं थे, किन्तु उन्होंने दाढ़ी रखी हुई थी, सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे जिसका कि उन दिनों प्रचलन था।

महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में

उन दिनों पंजाब पर महाराजा रणजीतसिंह का राज्य था। उन्हें सब भारतवासी पंजाब केसरी नाम से सम्बोधित करते थे। लाहौर उनकी राजधानी थी। प्रत्येक वसन्त पंचमी के अवसर पर वे अपनी राजधानी में एक बहुत बड़े दरबार का आयोजन किया करते थे। यह दरबार वसन्त पंचमी से आरम्भ होकर निरन्तर दस दिन तक चलता रहता था।

इस अवसर पर अनेक प्रकार के प्रदर्शन और मनोरंजन आदि के कार्यक्रम भी हुआ करते थे। अपने-अपने करतब में कुशलता दिखानेवाले युवक को महाराजा स्वयं पारितोषिक दिया करते थे। इसी अवसर पर अपनी सेना के लिए भी महाराज बलिष्ठ युवकों का चयन कर लिया करते थे और उनको उचित प्रशिक्षण प्रदान कर उपयुक्त पदों पर प्रतिष्ठित कर दिया करते थे।

सन् 1804 का वसन्त हरिसिंह के जीवन में एक नया मोड़ लेकर आया। उस समय हरिसिंह की आयु केवल 14 वर्ष की थी। किन्तु डीलडौल में हमारा यह होनहार किशोर, युवक जैसा ही लगता था। इस उत्सव में हरिसिंह भी सम्मिलित हुआ। वहाँ वह मात्र मूकदर्शक ही नहीं रहा अपितु उसने अपने करतबों का प्रदर्शन भी किया। उसके सैनिक-करतब देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गये। महाराज को भी इसकी भनक मिली। वे तो ऐसे युवकों की खोज में ही रहते थे। उन्होंने भी इस अद्भुत युवक को देखा। उसके मुखमण्डल से ऐसा तेज टपक रहा था कि महाराज प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने न केवल हरिसिंह को अपनी सेना में रखा अपितु उसको उन्होंने अपने विशिष्ट अंगरक्षक के पद पर नियुक्त कर दिया।

सरदार हरिसिंह का भाग्य इस उत्सव से पलट गया। उनको वह दिशा मिल गई जिसके लिए इस वीर प्रसविनी धरती पर अपनी वीरमाता की कोख से उन्होंने जन्म लिया था। महाराज के अंगरक्षक के नाते अब वह सदा उनके साथ ही रहने लगे थे।

सरदार हरिसिंह को राजदरबार में प्रविष्ट हुए अभी कुछ ही पास बीते थे कि एक दिन महाराज ने शिकार खेलने के लिए वन जाने की इच्छा व्यक्त की। स्वाभाविक था कि उनका अंगरक्षक उनके साथ ही जाता। सरदार हरिसिंह इससे बहुत प्रसन्न हुए। अपने दलबल के साथ महाराजा रणजीतसिंह ने वन में प्रवेश किया।

विचित्र संयोग है कि उनके वन में प्रविष्ट होते ही सामने से एक बाघ आ गया और वह इस तीव्र गति से हरिसिंह की ओर झपटा कि किसी को कुछ सोचने-समझने अथवा करने का अवसर ही नहीं रहा। बाघ सहसा ही आक्रमण कर बैठा था और पूरे यत्न से उसने हरिसिंह को दबोचने का यत्न भी किया। हरिसिंह को म्यान से अपनी तलवार निकालने का भी अवसर नहीं मिल पाया।

हरिसिंह इस प्रकार के आक्रमण से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। न उसे किसी प्रकार का भय ही लगा। दृढ़ निश्चयी उस वीर ने हाथों से ही उस बाघ के आक्रमण का सामना किया। संयोग से बाघ का जबड़ा उसके हाथों में आ गया। और उसको पकड़कर उसने बाघ को इस प्रकार उछालकर घुमाया कि बाघ का तो श्वास ही बन्द हो गया। हरिसिंह ने यथासामर्थ्य उसको चक्कर खिलाए और फिर जोर से भूमि पर पटक दिया। कदाचित् बाघ तुरन्त सँभल भी जाता किन्तु सरदार हरिसिंह ने उसको इसका अवसर ही नहीं दिया। जिस प्रकार सहसा बाघ उस पर झपटा था उसी प्रकार उसने सहसा बड़ी फुर्ती से म्यान से तलवार निकालकर बाघ की गर्दन पर इतना प्रबल प्रहार किया कि उसका सिर धड़ से पृथक् हो दूर जा गिरा।

महाराजा रणजीतसिंह तथा उनके अन्य सभी साथी उनसे कुछ ही दूर पर अवाक् से खड़े यह सब होता देख रहे थे। वे घोड़ा दौड़ाकर जब तक हरिसिंह की सहायता के लिए पहुंचे कि तब तक सबकुछ समाप्त हो चुका था। उन्होंने पहुँचकर हरिसिंह को सान्त्वना देते हुए कहा, "घबराओ नहीं. हम पहँच गए हैं।" तब हरिसिंह ने शान्त भाव से उत्तर दिया, "महाराज! आप कष्ट न कीजिये। आपकी कृपा से बाघ परलोक पहुँच गया है।" तब महाराज की दृष्टि गर्दन कट जाने से निर्जीव पड़े बाघ पर पड़ी। वे देखकर आश्चर्यचकित रह गये।  महाभारत काल में एक प्रसिद्ध राजा हुए हैं। उनका नाम था राजा नल। जिस प्रकार आजकल योरोपीय तथा अन्य पाश्चात्य देशों में 'बुल-फाइट' होती है अर्थात् साँड से मनुष्य का युद्ध होता है, उसी प्रकार उस युग में राजा नल शेर से युद्ध किया करते थे। साँड से युद्ध में यद्यपि मानव योद्धा अपने हाथ में किसी प्रकार का शस्त्र नहीं लेता किन्तु वह एक लाल चादर अवश्य लेता है, जिसके आधार पर वह साँड को डराता रहता है, इस प्रकार वह उस युद्ध में विजयी होने का यत्न करता है। कभी कोई योद्धा घायल भी हो जाता है और कभी बच भी जाता है।

राजा नल सिंह से कुश्ती किया करते थे। सिंह एक तो वैसे भी रक्त पिपासु पशु होता है जबकि साँड रक्त पिपासु नहीं होता। सिंह के नाखून बड़े नुकीले होते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह साँड की भाँति भारी शरीर का नहीं होता अपितु बड़ा फुर्तीला होता है और मानव पर आक्रमण करना उसका स्वाभाविक गुण है। राजा नल ऐसे हिंसक पशु से युद्ध करते थे और उसमें सदा विजयी होते थे। वे शेर के जबड़े पकड़कर उसको घुमा दिया करते थे और उस दिन ठीक उसी प्रकार हमारे नायक हरिसिंह ने भी बाघ के जबड़े पकड़कर उसको घुमा दिया था।

महाभारत की यह कथा बहुत प्रचलित है। कि रामायण और महाभारत भारतीयों के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं। महाराज को तुरन्त उस समय नल की वीरता का स्मरण हो आया और उन्होंने कह दिया, तुम तो राजा नल के समान वीर हो।

उपस्थित सैनिकों और कर्मचारियों ने इसका समर्थन किया और तब से हरिसिंह को 'नलवाँग' कहा जाने लगा। क्योंकि सरदार हरिसिंह सबसे छोटे होने के कारण सबके प्रिय थे इसलिए वह शब्द बिगड़कर नलवा' बन गया और फिर उनका यही नाम प्रचलित हो गया।

युद्ध क्षेत्र में

सन् 1807 के आरम्भ की बात है। उन दिनों कसूर पर नवाब कुतबदीन खाँ का शासन था। महाराज रणजीतसिंह को पता चला कि कुतबदीन उन दिनों बड़ी सैनिक तैयारी कर रहा है। कुतबदीन खाँ ने मुलतान के शासक नवाब मुजफ्फर खाँ को भी अपने साथ मिला लिया था। दोनों नवाब मिलकर सिक्ख साम्राज्य को समाप्त करने की योजना बना रहे हैं, यह समाचार भी महाराजा रणजीतसिंह को मिला। इतना ही नहीं, दोनों नवाब इसको धर्मयुद्ध का रूप देना चाह रहे थे। उन्होंने मौलवियों और गाजियों को गाँव-गाँव भेजकर इस धर्मयुद्ध के लिए सैनिक तैयार करने आरम्भ कर दिए थे। मुसलमानों को हिन्दू राज्य के विरुद्ध जेहाद के लिए ललकारा जा रहा था।

कसूर में होनेवाले नरसंहार को टालने के लिए महाराज रणजीतसिंह ने पहले तो नवाब कुतबदीन खाँ के पास उसे समझाने के लिए सरदार फतेहसिंह कालियावाला और अजीजदीन को अपना शान्तिदूत बनाकर भेजा। उन दोनों ने जाकर नवाब को युद्ध से होनेवाले, दोनों पक्षों की हानि-लाभ के विषय में समझाया। बात मानना तो एक ओर रहा अपित नवाब ने फकीर अजीजदीन का अपमान किया कि वह मुसलमान होकर हिन्दू का पक्ष प्रस्तुत कर रहा है । दूत अपना-सा मुख लेकर महाराज के पास लौट आए।

सरदार फतेहसिंह कालियावाला ने वापस आकर जब महाराज को सारी बात बताई, जिसमें फकीर अजीजदीन के अपमान करने की बात भी सम्मिलित थी तो उनको क्रोध आ गया। महाराज ने निश्चय कर लिया कि दोनों नवाबों को पाठ पढ़ाना ही होगा। तदनुसार उन्होंने अपनी सेना को कसूर पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया।

नवयुवक तथा नव नियुक्त नलवा की 'सिंह हृदय' सेना भी, जिसे बोलचाल की भाषा में उस समय 'शेर-दिल' कहा जाता था, इस युद्ध में भेजी गई। यह महाराजा की प्रिय सेना थी और उतना ही प्रिय था उनका सेना-नायक नलवा। नलवा अपनी सेना लेकर नोशहरा पहुँच गया। उसकी सेना पहले पहुँचनेवालों में से थी।

10 फरवरी 1807 को प्रात:काल कसूर पर धावा बोल दिया गया। महाराजा रणजीतसिंह स्वयं इस युद्ध में सम्मिलित हुए थे। महाराज की सेना की संख्या 10 सहस्र थी जबकि नवाब की नियमित सेना की संख्या 25 सहस्र और उतने ही अनियमित सैनिक थे जो मुल्लाओं के भड़काने पर जिहाद के लिए मैदान में उतारे गये थे। इस प्रकार 50 सहस्र मुसलमानी सेना से केवल 10 सहस्त्र हिन्दू सेना युद्ध कर रही थी।

रणजीतसिंह की सेना का उत्साह असीम सागर की भाँति उमड़ा पड़ रहा था तो उधर जेहाद की लालसा जिहादी मुसलमानों को भी मतवाला बना रही थी। इस प्रकार कभी एक आगे बढ़ता तो कभी दूसरा। दिन-भर दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध होता रहा। दिन ढलते तक नवाब की सेना का उत्साह भंग हो गया।

एक बार मुगल सेना का उत्साह भंग हुआ कि वह भागने लगी। भाग कर उसने दुर्ग में शरण ली। नलवा के दल ने उन भागते हुए सैनिकों का पीछा किया। अकेले उसकी वाहिनी ने दो सौ से भी अधिक मुसलमान सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। इसी प्रकार अन्य वाहिनी के सैनिकों ने भी उनका पीछा कर उनको भारी हानि पहुँचाई।

मुसलमान सेना कसूर के किले में जा छिपी। किले पर सहसा कमण करना सहज नहीं था। उधर दिन-भर के घमासान युद्ध के कारण सैनिक बुरी तरह थक गए थे, कुछ घायल भी हो गये थे। अतः यही उचित समझा गया कि कुछ दिन विश्राम करके फिर दुर्ग पर आक्रमण किया जाए।

इस प्रकार मुसलमान सेना दुर्ग के भीतर घिर गई। तब 18 फरवरी की प्रात:काल महाराज की सेना ने सहसा दुर्ग पर धावा बोल दिया। मुसलमान सैनिक भी विश्राम करने से उत्साहित अनुभव कर रहे थे। अतः पुनः दोनों ओर से समानता का युद्ध हुआ। दस दिन तक घमासान युद्ध होता रहा। दुर्ग का द्वार किसी प्रकार भी खुलने को नहीं आ रहा था। तब नायक नलवा ने अद्भुत कार्य किया। उसने अपनी सेना द्वारा दुर्ग की दीवार की नीव में तीन स्थानों पर सुरंगें लगा दी। उन सुरंगों में बारूद के कुप्पे भर दिये गये।

दुर्ग में सुरंगें लगाने का कार्य रात को किया गया था और पौ फटने से पूर्व ही यह कार्य समाप्त हो गया था। पौ फटते ही उन पलीतों में आग लगा दी गई। बारूद में आग लगी तो सुरंगें फट पड़ीं और दुर्ग की पश्चिमी दीवार गिर गई।

फिर क्या था, विद्युत गति से नलवा अपनी सेना लेकर दुर्ग में घुस गया। उसके पीछे अन्य सेनाएँ भी जा पहुँचीं।।

नवाब की सेना असंख्य थी। उनमें उत्साह भी बहुत ज्यादा था। किन्तु दीवार गिरने से उनका उत्साह भंग हो गया। मध्यान्ह तक वे वीरता से लड़ते रहे। नवाब स्वयं युद्ध में सम्मिलित था, किन्तु विधि को कुछ और ही स्वीकार था। नवाब की सेना के पैर उखड़ने लगे। मध्याह्न बीतते-बीतते नवाबी सेना के छक्के छूटने लगे। सहसा उसने नदान छोड़कर भागना आरम्भ कर दिया। बस फिर क्या था, एक टुकड़ी भागने लगी कि दूसरे को भी भागने का बहाना मिल गया।




दुर्ग पर महाराजा की सेना का अधिकार हो गया। नलवा की सेना ने नवाब कुतबदीन को बन्दी बना लिया। वह भागने में सफल नहीं हो सका।

इस प्रकार इस प्रथम युद्ध में ही नलवा ने न केवल सेना पर अपितु महाराजा के हृदय पर भी अपनी वीरता की धाक जमा दी। इस युद्ध में सैनिक के नाते वह पहली बार ही लड़ने के लिए उतरा था। यहाँ उसने अपनी युद्ध-कुशलता का और नायक की चातुरी का अनुपम परिचय दिया। दुर्ग की दीवार पर सुरंग लगाने की उसकी ही योजना थी और भागते हुए नवाब को पकड़ने के लिए भी उसने ही अपने युद्ध-कौशल का परिचय दिया था।

28 फरवरी 1807 को कसूर प्रदेश पर महाराजा रणजीतसिंह का राज्य हो गया। इस निर्णायक युद्ध में अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करने पर महाराजा बहुत प्रसन्न हुए और सरदार हरिसिह नलवा को उन्होंने 30 हजार रुपए वार्षिक की जागीर प्रदान की। मुलतान पर विजय

कसूर के नवाब कुतबदीन को विद्रोह के लिए उकसाने में मुलतान के नवाब मुजफ्फरखाँ का बहुत बड़ा हाथ था। उसने युद्ध में उसकी यथाशक्ति सहायता भी की थी। यदि मुजफ्फर खाँ की प्रेरणा और सहायता न होती तो कदाचित् वह महाराजा से युद्ध के लिए तैयार न होता। महाराजा रणजीतसिंह इस बात को भलीभाँति जानते थे। इसलिए उन्होंने उसका फण भी कुचलने का निश्चय कर लिया।

। जिस प्रकार कसूर पर आक्रमण के अवसर पर सैनिक तैयारी की गई थी, उसी प्रकार मुलतान पर आक्रमण के लिए तैयारी की गई। और फिर 15 फरवरी सन् 1810 को मुलतान के लिए कूच कर दिया गया। जैसा कि पहले भी बताया गया है कि हिन्दू व्यर्थ के रक्तपात से बचना चाहता है। अतः मुलतान पहुँचकर नवाब को पत्र लिखा गया कि उसने कसूर में विद्रोह कराया था और अब स्वयं भी विद्रोही बन गया है। तदपि यदि वह पिछला सारा राजस्व और पर्याप्त अर्थदण्ड से महाराज की सेवा में उपस्थित होकर क्षमायायना करे तो उसको क्षमा कर दिया जाएगा अन्यथा उस पर आक्रमण किया जायेगा।

नवाब ने इसका सीधा उत्तर नहीं दिया, वह टाल-मटोल करता रहा। वह इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी स्थिति और भी सुदृढ कर लेना चाहता था। महाराज उसकी यह चाल भाँप गये और उन्होंने अपनी सेना को उस पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। नवाब इसके लिए तैयार नहीं हो पाया था। वह मैदान छोड़कर दुर्ग में घुस गया। मुलतान पर महाराजा का अधिकार हो गया।

दुर्ग को घेर लिया गया। न कोई बाहर से उसके भीतर जा सकता था और न भीतर से कोई बाहर ही आ सकता था। नवाब अपनी सेना सहित दुर्ग में बन्दी सा बन गया। इस घटना का सुपरिणाम यह हुआ कि मुलतान के समीप के क्षेत्रों के शासकों ने महाराजा की अधीनता स्वीकार कर ली। इनमें बहावलपुर का नवाब सदीक मोहम्मद खाँ भी था।

मुलतान का युद्ध किसी निर्णायक स्थिति पर नहीं पहुँच रहा था। भीतर असीम खाद्य सामग्री एकत्रित थी। तब महाराजा ने आह्वान किया कि कुछ बलिदानी वीर आगे बढ़कर दुर्ग के दीवार की नींव में सुरंग बना उसमें बारूद भरने का कार्य करें, जैसा कि कसूर में किया गया था। किन्तु कसूर और यहाँ की स्थिति में अन्तर था। कसूर का नवाब इस सम्बन्ध में सावधान नहीं था। मुजफ्फर खाँ ने कसूर से शिक्षा ग्रहण कर ली थी। इसलिए दुर्ग की चौड़ी दीवार पर उसने अपने तोपखाने लगवा दिये थे। अतः दीवार की नींव पर सुरंग लगाना सरल कार्य नहीं था।

सुरंग लगाने का कार्य करने के लिए जानेवालों में महाराज स्वयं सबसे पहले तैयार हो गये। सरदार हरिसिंह नलवा ने तब आगे बढ़कर कहा, "महाराज! हमारे रहते आपको यह सब करने की आवश्यकता नहीं।"

महाराज ने कहा, "नहीं, मैं अवश्य जाऊँगा। आप जैसे शूरवीरों पर मुझे गर्व है। मुझे यह उचित नहीं कि आप लोगों को मैं मृत्यु के मुख में धकेल दूँ और स्वयं पीछे रह जाऊँ।"

सेनानायकों ने महाराज को बहुत समझाया किन्तु वे मान नहीं रहे थे। अन्त में हरिसिंह नलवा ने ही इस गुत्थी को सुलझाया। उसका कहना था कि उस जैसे सेनानायक तो एक नहीं अनेक उत्पन्न हो सकते हैं और तैयार भी किये जा सकते हैं किन्तु 'पंजाब केसरी' तो फिर जन्म नहीं ले सकता। तब बाध्य होकर महाराज को पीछे रह जाना पड़ा।

इस घटना से एक लाभ हुआ। सेना में अदम्य उत्साह भर गया। वह समझ गई कि उनका राजा भी उनकी ही भाँति मर-मिटने के लिए तत्पर रहता है। इस प्रकार हरिसिंह नलवा आदि नायकों के नेतृत्व में 75 सैनिकों का एक दल इस कार्य के लिए अग्रसर हुआ। ज्योंही यह दल आगे बढ़ा कि दुर्ग की प्राचीर पर से उन पर गोलियाँ बरसने लगीं। इससे अनेक योद्धा हताहत हुए, किन्तु वे अपने कार्य से विचलित नहीं हुए। उसी दशा में उन्होंने सुरंगें बनाईं, उनमें बारूद भरा और फिर उनमें आग भी लगा दी।

इस कार्य में तनिक-सी असावधानी हो गई । नलवा आदि समझ नहीं पाए कि बारूद के धमाके के साथ ही दीवार नीचे आ सकती है

और वे उसके नीचे दब सकते हैं। और वही हुआ। विस्फोट होते ही दीवार नीचे आ गिरी और हरिसिंह नलवा, निहालसिंह और अतरसिंह उसके नीचे दब गये।

दीवार का टूटना था कि हिन्दू सेना दुर्ग के भीतर घुसने को उतावली हो उठी। प्रत्येक सैनिक यही चाहता था कि वह सबसे पहले दुर्ग में प्रविष्ट होकर अपना करतब दिखाए। इस होड में किसी को यह ध्यान ही नहीं रहा कि उनके नायक दीवार के नीचे दबे पडे हैं। मुसलमान सैनिक सुदृढ़ स्थिति में थे। उन्होंने अवसर से लाभ उठाया और राल से जलती हुई हाँडियाँ नीचे दबे नायकों पर उड़ेल दीं। बस फिर क्या था, देखते-देखते उनके कपड़ों को आग लग गई। एक हाँडी सीधे नलवा पर आकर गिरी, जिससे उनके कपड़े जल जाने से उनका सारा शरीर झुलस गया।

सौभाग्य की बात थी कि उन्हीं की वाहिनी के एक सैनिक ने उनको इस अवस्था में देख लिया। वह दौड़कर उनके समीप गया। उसने उनकी वर्दी को फाड़ डाला। इस प्रकार उनके शरीर को लगने वाली आग बुझाकर उसने उनके आहत शरीर को कन्धे पर डाला और बरसती गोलाबारी में उन्हें बाहर निकाल लाया। सरदार निहालसिंह और अतरसिंह को भी निकाल लिया गया। उन्हें छावनी पहुंचा दिया गया। किन्तु अतरसिंह छावनी पहुँचने से पूर्व ही परलोक सिधार गए।

उधर युद्ध अपनी चरम सीमा पर था। देखते-देखते सारी सेना दुर्ग पर चढ़ गई थी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से नवाब मुजफ्फर खाँ का साहस टूट गया। उसने तुरन्त सफेद झंडा दिखाकर अधीनता स्वीकार करने का संकेत किया। उसके झंडा दिखाने पर युद्ध रोक दिया गया। उसके बाद न किसी मुसलमान सैनिक ने भागने का यत्न किया और न किसी हिन्द सैनिक ने किसी की हत्या की अथवा किसी को बन्दी बनाया।

मुजफ्फर खाँ को महाराज के सम्मुख उपस्थित किया गया। महाराज को उस पर बड़ा क्रोध आ रहा था। सेना के नायक भी उससे क्रुद्ध थे। किन्तु महाराजा रणजीतसिंह थे तो हिन्दू ही। कसूर का किला जीतने के बाद जैसे सबको आशा थी कि नवाब कुतबदीन के टुकड़े-टुकड़े करवाकर उसके मांस को कुत्तों को खिला दिया जाएगा, किन्तु हुआ उसके विपरीत । महाराज ने उसके गिड़गिड़ाने पर उसको क्षमा कर दिया। न केवल इतना उसको निर्वाह के लिए कुछ सम्पत्ति भी दे दी गई।

- इसी प्रकार जब मुजफ्फर खाँ को महाराजा के सम्मुख उपस्थित किया गया तो उसके प्रति भी सेना और सेना-नायकों में अत्यन्त क्रोध था। किन्तु वे अब महाराज के स्वभाव से परिचित हो गये थे।

और हुआ भी वही। जब मुजफ्फर खाँ ने अपनी लम्बी श्वेत दाढ़ी पर हाथ लगाकर कहा कि उसकी वृद्ध आयु का ही ध्यान कर उसको क्षमा कर दिया जाए तो महाराज ने उसको भी उसी प्रकार क्षमा कर दिया जिस प्रकार कुतबदीन को किया था।

मुजफ्फर खाँ ने ढाई लाख रुपया राजस्व और 22 बहुमूल्य घोड़े प्रतिवर्ष महाराज को देना स्वीकार किया और कभी विद्रोह न करने की सौगन्ध भी खाई। उसके बहनोई अबूबकरखाँ को प्रतिभू के रूप में लाहौर में रख लिया गया।

इस सबसे अवकाश पाकर जब महाराज अपने खेमे में वापस आये तब उन्हें विदित हुआ कि इस युद्ध में अपना एक निष्ठावान नायक वीरवर अतरसिंह को तो वे खो ही चुके हैं वैसे ही दो अन्य प्रतापी वीर हरिसिंह नलवा और निहालसिंह अटारीवाले मरणासन्न रूप में आहत हैं। तुरन्त ही हकीम अजीजुद्दीन को उनकी प्रारम्भिक चिकित्सा का आदेश दिया गया। उन दोनों की दशा देखकर एक बार तो सब निराश हो चुके थे किन्तु धीरे-धीरे दोनों स्वस्थ होने लगे। तब उन्हें लाहौर के बड़े चिकित्सालय में भेज दिया गया।

बाद में जब आहत सैनिक और नायक स्वस्थ हो गये तो फिर महाराज ने इस विजय के उपलक्ष्य में एक बहुत बड़ा दरबार किया।

अपनी सेना की उन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की। और उस भरे दरबार में तथा सब सैनिकों की उपस्थिति में उन्होंने इस युद्ध में हताहत होनेवाले सभी वीरों की इतनी प्रशंसा की कि आहत सैनिक अपना द:ख भूल गये। यहाँ तक कि मृत सैनिकों के परिवार वालों को भी देश के लिए अपने प्राण न्योछावर करनेवाले अपने परिजनों की, अब महाराज द्वारा प्रशंसा किये जाने तथा कुछ न कुछ आर्थिकरूपेण क्षतिपूर्ति किये जाने के उपरान्त उतना मलाल नहीं रह गया था।

क्योंकि मुलतान के इस युद्ध में सरदार हरिसिंह नलवा ने अपना सिर हथेली पर रखकर युद्ध मोर्चे को सँभाला था और फिर उसी प्रकार दुर्ग की दीवार को ढाने में साहस और वीरता का परिचय दिया था, इससे न केवल महाराज अपितु सभी सैनिकों में उनका सिक्का जम गया था। इस अवसर पर महाराज ने उनको 20 हजार रुपया वार्षिक की सम्पत्ति प्रदानकी।

सरदार हरिसिंह नलवा की यह क्रमश: दूसरी विजय थी। इस युद्ध में जिस प्रकार उसके शौर्य का सिक्का अपने महाराजा और अपनी सेना पर जम गया उसी प्रकार शत्रुपक्ष को भी विदित हो गया कि हरिसिंह नलवा वास्तव में 'नलवाँग' ही है। अत्याचारियों का दमन

शाहपुर प्रदेश के अन्तर्गत मिट्ठा टिवाणा में अहमदयार खाँ का शासन था। महाराज को सूचना मिली कि टिवाणे मुसलमान हिन्दू प्रदेश पर डाके डालकर वहाँ की प्रजा को निरन्तर लूट रहे हैं। इससे न केवल धन की ही हानि हो रही थी अपितु हत्याएँ भी हो रही थीं। पशुओं को चुरा लिया जाता था। वहाँ की हिन्दू जनता बहुत कष्ट अनभुव कर रही थी।

महाराज रणजीतसिंह को ज्योंही इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने सरदार हरिसिंह और सरदार दलसिंह को अपनी-अपनी सेना लेकर उधर जाने का आदेश दिया। 7 फरवरी 1812 को ये दोनों नायक अपनी-अपनी सेना लेकर मिट्ठा टिवाणे के लिए कूच कर गए। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने मिट्ठा टिवाणा को घेर लिया।

हिन्दू सेना के आने की सूचना मिलते ही टिवाणे भी लड़ने के लिए तैयार हो गये। अहमदयार खाँ स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व कर रहा था। दिन-भर घमासान युद्ध होता रहा। टिवाणे बड़े साहस से नलवा की सेना का सामना कर रहे थे। किन्तु हरिसिंह की सेना की तोपों ने उनकी महलमाड़ियाँ धराशायी कर दी।

तदपि हरिसिंह नलवा नहीं चाहते थे कि अधिक रक्तपात हो अथवा सम्पत्ति का नाश हो। इसलिए शाम होने पर अहमदयार खाँ के पास दूत द्वारा कहलाया गया कि वह आज दिन-भर हमारी सेना का युद्ध-कौशल देख चुका है। उसको यह भी विदित हो चुका है कि उसकी अपनी सेना कितने पानी में है। इसलिए यदि वह अपना भला चाहता है तो रातोंरात नगर और गढ़ी को खाली कर के वहाँ से भाग जाय। हमारी सेना उसके भागने में किसी प्रकार की बाधक नहीं बनेगी। किन्तु यदि उसने इसे स्वीकार न किया तो फिर जो रक्तपात होगा उसका सारा उत्तरदायित्व अहमदयार खाँ पर होगा।

अहमदयार खाँ ने अपने सहयोगियों से परामर्श किया। उनको भी इसी में अपनी भलाई दिखाई दी। इसलिए उसने कहला भेजा कि वे लोग नगर और गढ़ी खाली कर रहे हैं।

नलवा की सेना यह सब देख रही थी। किन्तु वह आश्वस्त हो जाना चाहती थी कि वास्तव में अहमदयार खाँ नगर और गढ़ी खाली भी कर रहा है अथवा यों ही धोखा दे रहा है। नगर खाली करनेवालों को केवल अपनी आवश्यक सामग्री ले जाने की अनुमति थी, हथियार नहीं।

टिवाणों ने रातोंरात गढ़ी और नगर को खाली कर दिया और अगले दिन प्रात:काल गढ़ी पर हिन्दू सेना ने अधिकार कर लिया। राजधानी पर अधिकार हो जाने से यह सारा प्रदेश महाराजा रणजीतसिंह के राज्य का अंग बन गया।

तेज दौड़नेवाली साँड़नी सवार के माध्यम से यह सुसमाचार महाराजा के पास भेज दिया गया। सन्देशवाहक को महाराज ने पुरस्कृत किया और नलवा को कहला भेजा कि उनकी अगली आज्ञा तक वे लोग वहाँ का भली प्रकार पक्का प्रबन्ध कर लें।

सरदार हरिसिंह ने सरदार दलसिंह की सहायता से उस प्रदेश का अच्छा प्रबन्ध कर दिया। वे अभी इस कार्य से निवृत्त हुए ही थे कि महाराज का उनको आगे की कार्यवाही के लिए पत्र मिल गया।

बहावलपुर के अन्तर्गत एक स्थान था उच्च । उच्च के गेलानी और बुखारी सैयद हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार करने लगे थे। उनके राज्य में किसी हिन्दू का रहना दूभर हो गया था। किसी सशक्त हिन्दू को यदि वे सामने से आता देखते तो अपने मुख पर कपड़ा डाल लिया करते और यदि कोई साधारण-सा हिन्दू दिखाई दिया तो वे उसके मुख पर ही थूक दिया करते थे। सैयद लोग मुगल काल से ही स्वतन्त्र और उच्छृखल जीवन व्यतीत कर रहे थे। अब तो हिन्दुओं को दुर्बल देखकर उनका उत्साह और भी बढ़ता जा रहा था।

सैयदों की इस घणा और अत्याचार का यह परिणाम हुआ कि उस प्रदेश में न तो कोई हिन्दू बस सकता था और न बसने ही दिया जाता था। सैयद भाँति-भाँति के अत्याचार करते। कोई भी उनको रोकने वाला नहीं था। दिन-दहाडे लूट-पाट करना तो उनका नित्य का काम हो गया था।

महाराज का आदेश पाते ही नलवा सरदार दलसिंह को साथ लकर उच्च पर जा चढा। सैयद भी जैसे-जैसे लड़ने को तैयार हो गये। किन्तु यहाँ पर भी एक दिन से अधिक युद्ध नहीं चल पाया। हिन्दू सैनिकों के सम्मुख बुखारी सैयदों के पैर उखड़ गये। जो आँखें अब तक घृणा और अहंकार से किसी हिन्दू को देख भी नहीं सकती थीं, वे नलवा की सेना के तेज के सम्मुख चकाचौंध हो ऊँची उठ ही नहीं सकीं। इस प्रकार नलवा ने उनका मान-मर्दन किया। अन्य कोई उपाय न देख वे मुख में तिनका रखकर सरदार हरिसिंह के पास आ उपस्थित हुए। उन्होंने 25 हजार रुपया दण्ड दिया और भविष्य में शान्ति से रहने और रहने देने का वचन भी दिया।

इन दोनों युद्धों में सरदार दलसिंह भी हरिसिंह नलवा के साथ था। उसने जब नलवा की वीरता की कहानी महाराजा को सुनाई तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मिट्ठा टिवाणा का प्रदेश हरिसिंह नलवा को पुरस्कार में प्रदान कर दिया।

इस प्रकार क्रमशः हरिसिंह नलवा का सम्मान बढ़ता जा रहा था और उसके साथ ही उसकी जागीर भी बढ़ती जा रही थी।

अटक दुर्ग पर विजय
भारत विभाजन से पूर्व इस देश की पश्चिमी सीमा अटक से आरम्भ होती थी। अटक अब पाकिस्तान में है। अटक में सिन्धु नदी के ऊपरी भाग पर एक बहुत बड़ा दुर्ग बना हुआ था। जिन दिनों का हम वर्णन कर रहे हैं उन दिनों यह दुर्ग अफगानों के अधिकार में था। उनकी ओर से जहाँदाद खाँ वहाँ का शासक था। अटक का दुर्ग किसी विदेशी के अधिकार में रहे, यह भारत के लिए भय की बात थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए उस पर अधिकार करने की जब बात आई तो सरदार हरिसिंह नलवा का स्मरण हो आना स्वाभाविक था।

बस, फिर क्या था। हरिसिंह नलवा को अपनी सेना लेकर अटक की ओर जाने का आदेश हो गया। उनके साथ एक दीवान मोहकमचन्द को भी भेजा गया। हरिसिंह अपनी सेना लेकर जेहलम के पास पहुँचे ही थे कि उनको पता चला कि हजरो के निकट शमसाबाद में फतेह खाँ वजीर अपने भाई दोस्तमोहम्मद खाँ के साथ 15 हजार स्थायी और इतनी ही अस्थायी सेना लेकर उनका रास्ता रोकने के लिए खड़ा है।

शमसाबाद से दोस्त मोहम्मद खाँ ने हरिसिंह नलवा को पत्र लिखा कि यदि वे पेशावर उसको दे दें तो वह उनको भेंट दे दिया करेगा अन्यथा वह एक बहुत बड़ी सेना लेकर उनसे युद्ध करेगा।

हरिसिंह को विचार करने में एक क्षण भी नहीं लगा। उन्होंने कहलवाया कि अब पेशावर का मिलना कठिन है। इस स्थिति में युद्ध करना या सन्धि करना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। हम प्रत्येक प्रकार से तैयार होकर आये हैं। यह उत्तर पाकर दोस्तमोहम्मद बौखला गया। युद्ध की तैयारी होने लगी।

सरदार हरिसिंह ने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त कर उनको उचित स्थानों पर नियुक्त कर दिया। युद्ध आरम्भ ही होने वाला था कि तब तक महाराज रणजीतसिंह भी युद्ध मोर्चे पर जा पहुँचे। सरदार हरिसिंह नलवा ने उनको सारी स्थिति समझाई तो उन्होंने एक बार युद्ध रोकने का यत्न करना चाहा। इसके लिए उन्होंने सुलतान मोहम्मद नाजिम और फकीर अजीजदीन को भेजकर दोस्तमोहम्मद को समझाने का यत्न करना चाहा। महाराज ने कहला भेजा कि हम दोनों ही बूढे हो गये हैं, कहीं ऐसा न हो कि दोनों इस लड़ाई में कूच कर जाएँ। इस पर भी यदि उसका मन लड़ने को ही करता हो तो फिर सेना को एक ओर छोड़कर दोनों परस्पर द्वन्द्व युद्ध कर लें। इससे ही विजय-पराजय का निर्णय हो जाए।

दोस्त मोहम्मद पहले तो सन्धि करने के लिए तैयार हो गया, किन्तु फिर उसको काजियों ने भड़का दिया। उन मूर्ख काजियों के भड़काने पर उसने फकीर अजीजदीन को यह कहकर बन्दी बना लिया कि वह मोमिन होकर भी काफिर का नौकर है और मोमिनों के सामने काफिरों की प्रशंसा करता है।

अन्त में कोई अन्य उपाय न देख 12 जुलाई को अफगानों पर आक्रमण कर दिया गया। अफगानों में भी उत्साह की कमी नहीं दिखाई दे रही थी। क्योंकि ज्यों ही हरिसिंह की सेना आगे बढ़ी कि अफगानों ने भी अपनी तोपों का मुख उनकी ओर कर दिया। बस फिर क्या था, दोनों ओर से तोप गोले बरसने लगे। भाले से भाला टकराया तो तलवार से तलवार भी टकराई। इस प्रकार रात का अँधेरा होने तक यह युद्ध चलता रहा।

अगले दिन प्रातःकाल ही हरिसिंह ने अपनी सेना की इस प्रकार व्यूह-रचना की कि चारों ओर से उनके सैनिक दल बनाकर शत्रु पर टूट पड़े। अफगान भी सामना करने के लिए आ डटे। बड़ी वीरता के साथ उन्होंने हरिसिंह के आक्रमण को रोकने का यत्न किया। दोपहर तक घमासान युद्ध चलता रहा। गाजी लोगों के भड़काने पर गाँवों के मुसलमान जिहाद करने के लिए आये। बड़े उत्साह में भरे तोप गोलों के सामने वे आते और भुने हुए मकई के दाने की भाँति उछलकर दूर जा गिरते। इस प्रकार आहतों और मृतकों के शरीरों से युद्ध-मैदान छा गया। तलवारों, बन्दूकों और तोपों की तुमुल ध्वनि इस दृश्य को और भी अधिक भयावह बना रही थी।

एक ओर नलवा अपने सैनिकों का साहस बढ़ा रहा था तो दूसरी ओर दोस्तमोहम्मद खाँ और फतेह खाँ अपने मुसलमानों को गाजी का सम्मान देकर उन्हें जिहाद के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। दोनों ओर से भीषण संग्राम चल रहा था। दोनों ही पक्ष अपना बाहुबल प्रदर्शित करने की होड़ लगाये बैठे थे। दोनों को विश्वास था कि कल जो बीत गया वह बीत गया, आज तो बस उसके दल की ही विजय है।

जहाँ एक ओर आग्नेय अस्त्र भीषण ताप दे रहे थे वहाँ आषाढ़ की भीषण गर्मी उसमें और भी उष्णता भरकर सैनिकों को तपा रही थी। इसमें दोनों ही ओर के सैनिक भुन रहे थे। किन्तु नलवा तो बस नलवा ही था। उसने ठीक मौके पर दोस्तमोहम्मद खाँ पर इस प्रकार तलवार चलाई कि वह घोड़े से गिरकर नीचे भूमि पर आ पड़ा। उसको गिरते देख अफगान सेना में शोर मच गया कि दोस्तमोहम्मद खाँ मारा गया है। बस फिर क्या था उसकी अपनी ही सेना में भगदड़ मच गई।

नलवा ने इसे अच्छा अवसर जानकर अपनी सेना को आगे बढ़ा दिया। दिन ढलते ही सारी अफगान सेना या तो युद्ध में खेत रही या फिर भागकर लुप्त हो गई। नलवे की सेना ने सिन्धु नदी के तीर तक उन भागनेवालों का पीछा किया और इस प्रकार उसने अटक के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। महाराज को जब यह समाचार मिला तो वे प्रसन्नता से फूल गए। दूत को उन्होंने दो स्वर्ण कंकणों से पुरस्कृत किया। इस उपलक्ष्य में लाहौर, अमृतसर और बटाला आदि नगरों में कई दिनों तक दीपमाला जगमगाती रही। उसके बाद अफगान ने फिर बहुत दिनों तक सिर नहीं उठाया। इसमें नलवा को प्रभूत युद्ध सामग्री भी प्राप्त हुई।



मुजफ्फर खाँ की पराजय

मुलतान के नवाब मुजफ्फर खाँ का उल्लेख हम मुलतान विजय के सन्दर्भ में पहले कर आए हैं कि उस पर विजय प्राप्त कर ली गई थी। उसने सारा पिछला राजस्व दे दिया था, दण्ड राशि का भुगतान भी कर दिया था और भविष्य में निरन्तर राजस्व देते रहने का वचन भी दिया था। किन्तु वह इतना निर्लज्ज था कि हिन्दू सेना के वहाँ से हटते ही वह फिर अपनी मनमानी करने लगा। तब फिर उसको परास्त करने के लिए जाना पड़ा था। ऐसा वह बार-बार करता था। प्रत्येक बार वह क्षमा माँगकर अथवा गिड़गिड़ाकर बचता रहा था। इस प्रकार सन् 1802 से सन् 1818 तक उसने सात बार विद्रोह किया और सातों बार उसको क्षमा प्राप्त होती रही।

किन्तु इस बार निश्चय कर लिया गया था कि युद्ध में उसको परास्त कर मुलतान को महाराजा रणजीतसिंह के राज्य का अभिन्न अंग बना लिया जाएगा। उधर जब मुजफ्फर खाँ को इस निश्चय का ज्ञान हुआ तो उसने अपने 8 बेटों, अनेक भतीजों तथा पोतों और उतने ही मौलवियों को अपनी रियासत में जिहाद का प्रचार करने के लिए भेज दिया। बस फिर क्या था, सदा की भाँति इस बार भी धर्मान्ध मुसलमानों का झुण्ड मुजफ्फर खाँ के झंडे के नीचे एकत्रित होने लगा। उसके साथ युद्ध सामग्री और खाद्य सामग्री दोनों अत्यधिक मात्रा में एकत्रित थी। अतः उसने भी इस बार अन्तिम युद्ध की तैयारी कर ली।

- महाराजा रणजीतसिंह की ओर से इस युद्ध में पाँच नायक भेजे गये। सरदार हरिसिंह नलवा, राजकुमार खड्गसिंह, सरदार फतेहसिंह, सरदार धन्नासिंह और श्यामसिंह अटारीवाले। रास्ते में हरिसिंह नलवा के दल ने अकस्मात् मुजफ्फरगढ़ पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया।

महाराज रणजीतसिंह की समस्त सेना जब मुलतान पहुँच गई तो राजकुमार खड्गसिंह ने खलीफा नुरद्दीन, मौलाना मिरजा हुसेन हिन्दुस्तानी और दीवान मोतीराम को नवाब के पास भेजकर कहलवाया कि व्यर्थ में रक्तपात करने से कोई लाभ नहीं। इसलिए यदि वह भविष्य में शान्तिपूर्वक रहने का वचन दे तो युद्ध नहीं किया जाएगा और नवाब को उसके निर्वाह के लिए एक बड़ी जागीर भी दे दी जाएगी।

इस बार नवाब कुछ अधिक ही प्रमत्त हो गया था। उसको अपनी सेना और गाजियों की सहायता तथा अपने दुर्ग की दृढता पर बडा अभिमान हो रहा था। उसने राजकुमार का सुझाव अस्वीकार कर दिया। कदाचित् वह अब भी यही समझता था कि जिस प्रकार पिछली छ: बार हारने पर क्षमायाचना कर और भेंट देकर बच गया था उस प्रकार अब भी बच ही जाएगा।

इस स्थिति में 2 फरवरी 1818 को उस पर आक्रमण कर दिया गया। उसके दुर्ग पर इस प्रकार तोपों की मार की गई कि उसकी प्राचीर दो स्थान पर से फट गई। किन्तु नवाब के बेटे सावधान थे। उन्होंने तुरन्त उस स्थान पर रेत के बोरे भरकर उसकी रक्षा की। तीन दिन तक घमासान युद्ध होता रहा। परिणाम कुछ नहीं निकला। किन्तु चौथे दिन तोप के गोलों से नगर का लाहौरी द्वार टूट गया।

बस फिर क्या था। सरदार हरिसिंह नलवा ने अवसर देखा और सेना लेकर नगर में घुसता चला गया। नवाब की सेना उसका सामना करने में असमर्थ रही। फिर भी जमकर युद्ध हुआ किन्तु अन्त में नगर पर नलवा का अधिकार हो गया। आठ फरवरी को नवाब मुजफ्फर खाँ अपनी बहुत सारी सेना लेकर नगर पर पुनः अधिकार करने के लिए आया किन्तु पार न पा सका। अन्त में वह अपनी सारी सेना लेकर दुर्ग के भीतर जा बैठा।

दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया गया और इस प्रकार की व्यूहरचना की गई कि जिससे न तो दुर्ग के भीतर से कोई बाहर आ सके और न बाहर से कोई भीतर जा सके। बाहर के संसार से दुर्ग वालों का बिल्कुल ही नाता टूट गया। महाराज की सेना का विचार था कि खाद्यसामग्री समाप्त होने पर सहज ही नवाब को आत्मसर्मपण के लिए विवश होना पडेगा। किन्तु नवाब ने उस दुर्ग में इतनी सामग्री एकत्रित कर रखी थी कि वह एक वर्ष तक भी समाप्त नहीं हो सकती थी।

तीन मास तक दुर्ग पर घेरा पड़ा रहा और निरन्तर दुर्ग पर बाहर से आक्रमण भी होता रहा। दुर्ग के द्वार पर मदमस्त हाथियों को टकराया गया किन्तु उसका कोई भी द्वार टस से मस नहीं हुआ। हिन्द्र सेना समझ गई कि दुर्ग पर अधिकार करना सहज नहीं है। और फिर भयंकर गरमी के कारण उनकी सेना में कहीं-कहीं हैजे का भी प्रकोप होने लगा था। __महाराज को जब यह सूचना भेजी गई तो उनको चिन्ता होने लगी। उन्होंने तुरन्त फूलासिंह अकाली से सहायता की पुकार की। जिस दिन अकाली अपनी सेना लेकर मुलतान पहुँचा कि उसी दिन तोपों के गोले से खिजरी दरवाजे के साथ बुर्ज भी ढह गया। इससे किले की दीवार पर दो बड़े-बड़े छेद हो गए। अकाली फूलासिंह ने

अवसर देखा और अपनी सेना लेकर उन छिद्रों के मार्ग से वह दुर्ग में प्रविष्ट हो गया।

बस फिर क्या था, सारी हिन्दू सेना उत्साह में भरकर निरन्तर दुर्ग में प्रविष्ट होती गई। फूलासिंह के बाद नलवा ही वह दूसरा नायक था जो दुर्ग में प्रविष्ट हुआ था। नलवा और अकाली ने अन्य नायकों की सहायता से वह घमासान युद्ध किया कि नवाब के छक्के छूट गये। उसके बेटों और पोतों समेत उसको यमलोक भेज दिया गया।

नवाब और उसके बेटों का परलोक सिधारना था कि अवशिष्ट सेना ने हथियार डाल दिये। उनको बन्दी बना लिया गया। खजाने की चाबियाँ ली गईं और इस प्रकार खजाने से बहुत-सा सोना-चाँदी और रुपया हाथ लगा। सात हजार बीस बन्दूकें और नौ तोपें तथा सहस्रों तलवार आदि बहुत-सी युद्ध सामग्री भी इनके हाथ आई।

मुलतान विजय का समाचार महाराजा के पास लाहौर भेजा गया। यह सुनकर महाराजा ने प्रभु का धन्यवाद किया और फिर दूत को स्वर्ण कंगन की जोड़ी, कण्ठाभरण और 500 रुपया आदि देकर उसको पुरस्कृत किया गया।

इस प्रकार न केवल मुजफ्फर खाँ विद्रोही का अन्त हुआ अपितु सदा-सदा के लिए मुलतान का काँटा उखाड़ फेंका गया। न मुजफ्फर खाँ बचा और न उसके वंश का कोई अन्य ही। जिहाद के नाम पर युद्ध करनेवाले गाजियों को भी मुँह की खानी पड़ी।

कदाचित् इस बार भी मुसलमानों का खुदा हिन्दुओं के पक्ष में हो गया था। अन्यथा इतनी प्रबल सेना और इतनी प्रभूत सामग्री होने पर भी किस प्रकार उस सुदृढ़ दुर्ग पर हिन्दू सेना का अधिकार हो पाता और किस प्रकार नवाब के वंश की बेल को उखाड़कर फेंका जाता?

मुलतान विजय करनेवाली सेना जब लाहौर पहुँची तो महाराज ने प्रत्येक के सिर पर से रुपए वारे। क्योंकि इस युद्ध में भी हरिसिंह नलवा का निर्णायक भाग था, उसने असीम वीरता और साहस का परिचय दिया था, इस कारण उसको विशेष पुरस्कार के साथ-साथ उसकी जागीर दुगुनी करने की घोषणा की गई।

देवभूमि कश्मीर

कश्मीर को भारत का नन्दन-कानन कहा जाता रहा है। किन्तु वही काश्मीर जब अत्याचारियों के अधीन हुआ तो भारत का वह स्वर्ग नरक में बदल गया। काश्मीर जब अफगानों के अधिकार में आया तो वहाँ अन्याय और अत्याचार की पराकाष्ठा हो गई। किसी भी व्यक्ति का सिर काट लेना साधारण-सी बात हो गई थी। हिन्दुओं पर निर्मम अत्याचार होते थे। इन अत्याचारियों में असद खाँ तो नितान्त क्रूर था। वह दो हिन्दुओं की पीठ जोड़कर उनको बाँध देता और फिर उनको डल सरोवर के गहन जल में फेंकवा देता। जब वे डूबने से बचने के लिए जोर-जोर से अपने हाथ-पैर मारते तो किनारे पर बैठा वह अत्याचारी आनन्द से विभोर हुआ करता था।

उस काल में हिन्दू न तो अपने सिर पर पगड़ी बाँध सकते थे और न पैर में जूता डालकर चल ही सकते थे। इन अत्याचारियों द्वारा छोड़ी गई कुटनियाँ हिन्दुओं के घरों में घूमती-फिरती थीं और जिसकी भी बहू-बेटी को वे सुन्दर देखतीं उसे राजभवन में पहुँचवा देतीं। काश्मीर के पण्डितों की बड़ी दुर्दशा होती थी। सर वाल्टर लॉरेंस ने अपनी पुस्तक वैली ऑफ काश्मीर में तो यहाँ तक लिखा है कि सड़क पर यदि किसी मुसलमान को कोई काश्मीरी पण्डित चलता दिखाई देता तो वह उछलकर उसकी पीठ पर जा चढ़ता और अपने गन्तव्य तक उसको उसी प्रकार ले जाता।

ऐसी अवस्था में एक काश्मीरी पण्डित जिनका नाम राज काक था, अपने पुत्र के साथ किसी प्रकार वहाँ से भागने में सफल हो गया और उन्होंने लाहौर जाकर महाराजा रणजीतसिंह के सम्मुख अपना रोना रोया। उधर अजीम खाँ को जब यह सूचना मिली कि पण्डित लाहौर पहुँच गया है तो उसने पण्डित के घर को लूटने का आदेश दे दिया। पण्डित की पत्नी ने तो आत्महत्या करके आत्मरक्षा कर ली किन्तु उनकी नव-युवती पुत्रवधू इतना साहस नहीं कर सकी। उसे मुसलमान बनाकर काबुल भेज दिया गया।

इस परिस्थिति में 20 फरवरी 1819 को हिन्दू सेना ने काश्मीर की ओर कूच किया। वजीराबाद के निकट पहुँचकर सरदार हरिसिंह नलवा, सरदार फूलासिंह अकाली और राजकुमार गंगासिंह को काश्मीर पर चढ़ाई करने का आदेश हुआ। 1 मई 1819 को सर्वप्रथम हरिसिंह नलवा अपनी सेना के साथ राजौरी जा पहुँचा। उसने राजोरा के शासक अगर खाँ पर इतनी तीव्रता से धावा बोला कि उसे भागकर अपने प्राण बचाने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं सूझा। किन्तु नलवा इतना असावधान नहीं था। उसने अगर खाँ को भागने नहीं दिया अपित मार्ग में ही पकड़ लिया। उसे बन्दी बनाकर महाराज के पास भेज दिया गया।

नलवा आगे पुंछ की ओर बढ़ा। वहाँ का नवाब जबरदस्तखाँ बडी जबरदस्ती से लड़ा। नलवा की सेना ने उसके दुर्ग पर सुरंग लगाकर उसकी दीवार तोड़ उस पर आक्रमण किया। नवाब ने तब भागना चाहा किन्तु उसे भी पकड़ लिया गया। उसके बन्दी बनते ही उसकी सारी सेना का उत्साह टूट गया।

हिन्दू सेना का काश्मीर के अनेक स्थानों पर अधिकार हो गया था। सेना अभी बहिराम गले में विश्राम कर रही थी कि उसे विदित हुआ कि काश्मीर का नवाब मुहम्मद जबार खाँ विशाल सेना के साथ सीपियाँ के मैदान में मोर्चा डाले बैठा है। बस, फिर क्या था, हिन्दू सेना ने उधर ही कूच कर दिया और 3 जुलाई 1819 को उस पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। दिन ढलने के समय दीवानचन्द मिश्र ने अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया किन्तु तभी जंगल की ओट से आकर शेरदिल खाँ ने उस पर आक्रमण कर दिया। हरिसिंह नलवा को इसकी सूचना मिली। उसने तनिक भी समय न गँवाते हुए पीछे से शेरदिल खाँ पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार अफगान सेना घेरे में आ गई। दोनों ओर से संगीनों और तलवारों से युद्ध होने लगा। फूलासिंह अकाली को जब इसकी सूचना मिली तो उसने भी एक ओर से आकर अफगानों पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शेरदिल खाँ, उसका भाई मीर आखारे समद खाँ तथा अन्य अनेक पठान मुखिया मार डाले गए।

तभी एक और विचित्र घटना घटित हुई। काश्मीर का शासक नवाब जबार खाँ सहसा हरिसिंह नलवा के सम्मुख आ उपस्थित हुआ। वह समझता था कि अपनी चमचमाती तलवार की धार वह अनायास ही नलवा पर टिका देगा। किन्तु ज्योंही उसने अपना तलवार वाला हाथ ऊपर उठाया कि तत्क्षण नलवा ने अपनी कृपाण से उसका वह हाथ ही काटकर न केवल अपनी प्राण रक्षा की अपितु जबार खाँ को निहत्था और निश्शस्त्र कर दिया। जबार खाँ सिर के बल वहाँ से अपने प्राण लेकर किसी प्रकार भागने में सफल हो गया।

हरिसिंह नलवा के विषय में प्रसिद्ध है कि उसकी आँखों में एक विशेष प्रकार का सम्मोहन था। बड़े-बड़े योद्धा की भी जब उससे आँखें चार होती थीं तो वह डरकर भाग जाया करता था। सम्भवतया उसी सम्मोहन के वशीभूत जबार खाँ हत-प्रभ हुआ होगा और वह किसी प्रकार नलवा पर आक्रमण करने की सोचता कि उससे पूर्व उसका तलवार वाला हाथ ही काट डाला गया।

अफगानी सेना का साहस टूट गया। समर भूमि में अब उसको अपने पैर टिकाये रखना कठिन हो गया। जबार खाँ तो वहाँ से ऐसा भागा कि फिर वह कहीं टिका ही नहीं। सीमान्त की पर्वत की घाटियों में किसी प्रकार छिपता-छिपाता वह भागता-दौड़ता मुजफ्फराबाद के मार्ग से अफगानिस्तान जा पहुँचा। तब उसके भागने से सहज ही काश्मीर पर हिन्दू राज्य स्थापित हो गया। इस प्रकार इस्लामी शासन की आठ पीढ़ियाँ और पाँच सौ वर्ष अर्थात् सन् 1325 से 1819 के बाद काश्मीर में पुनः हिन्दू राज्य की स्थापना हो गई। इस युद्ध में बहुत-सी युद्ध सामग्री नलवा को मिली। विजय के उल्लास में तोपें दागी गईं और धौंसे बजाये गये।

4 जुलाई सन् 1819 को बड़ी सजधज के साथ हिन्दू सेना ने काश्मीर की राजधानी श्रीनगर में प्रवेश किया। नगर में डोंडी पिटवा दी गई कि किसी भी नागरिक को डरने की आवश्यकता नहीं है।

किसी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दिया जाएगा। सैनिकों को कडी आज्ञा दी गई कि वे किसी भी नागरिक पर किसी प्रकार की कदष्टि न डालें। सेना की ओर से किसी प्रकार का उत्पात न किये जाने की घोषणा किये जाने पर नागरिकों को ढाँढस बँधा और उन्होंने खुले हृदय से हिन्दू सेना का स्वागत किया।

काश्मीर विजय की खुशियाँ मनाई जा रही थीं कि तभी सरदार हरिसिंह नलवा और श्यामसिंह अटारी वाले ने मुजफ्फराबाद और दरबंद पर आक्रमण कर उसको भी काश्मीर में मिला दिया।

काश्मीर का सारा प्रबन्ध महाराज ने हरिसिंह नलवा को सौंप दिया। हरिसिंह ने वहाँ व्यवस्था स्थापित की और दीवान मोतीराम को वहाँ का प्रथम हिन्दू गवर्नर नियुक्त कर दिया।

काश्मीर विजय के उपरान्त जब हरिसिंह नलवा लाहौर वापस आया तो शाहदरा के पास बड़ी धूमधाम से महाराजा रणजीतसिंह ने उसका स्वागत किया। बहुत-सी सेना और बाजे-गाजे तथा राजकर्मचारियों के साथ महाराज स्वयं हाथी पर सवार होकर उसकी शोभायात्रा में सम्मिलित हुए।

लाहौर के बाजार खूब सजाये गये। सरदार हरिसिंह नलवा जब लाहौरी द्वार से नगर के भीतर प्रविष्ट हुआ तो नागरिकों ने मकानों की छतों पर से उस पर फूल बरसाये और केवड़ा छिड़का। इस प्रकार सरदार हरिसिंह नलवा महाराज के साथ लाहौर में प्रविष्ट हुआ।

उसके दूसरे दिन हजूरी बाग में एक बहुत बड़ा दरबार किया गया। काश्मीर युद्ध के समय वीरता दिखानेवाले सभी सैनिक अधिकारियों को उस दरबार में सम्मानित किया गया, उन्हें पारितोषिक दिये गये।

इस अवसर पर हरिसिंह नलवा को धन्नी प्रान्त जागीर में दिया गया।

नलवा गवर्नर के रूप में

काश्मीर राज्य को अफगानों से छीनकर जब भारत का अंग बनाया गया तो कुछ समय के लिए सरदार हरिसिंह नलवा वहाँ का प्रशासन सँभालने के लिए वहीं रह गये थे। महाराज की आज्ञा से उस समय उन्होंने स्वयं दीवान मोतीराम को काश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया था। दीवान मोतीराम बहुत ही सज्जन पुरुष भले ही हों किन्तु । उनमें प्रशासन करने की योग्यता नहीं थी। इसका परिणाम यह हुआ कि सारे राज्य में अव्यवस्था फैल गई।

महाराजा रणजीतसिंह को जब इस बात का ज्ञान हुआ तो उन्होंने दीवान देवीदास को इसकी जाँच करने के लिए भेजा। दीवान देवीदास ने काश्मीर में जाकर सब कुछ अपनी आँखों से देखा और फिर आकर महाराजा को बताया कि यदि शीघ्र ही काश्मीर पर किसी कठोर प्रशासक को नियुक्त न किया गया तो वहाँ विद्रोह फैलने की सम्भावना है। यदि एक बार विद्रोह ने सिर उठा लिया तो फिर उसको दबाना उतना सरल नहीं होगा।

महाराज ने इसके लिए सरदार हरिसिंह नलवा को उपयुक्त व्यक्ति समझा और उन्हें काश्मीर का गवर्नर नियुक्त कर श्रीनगर भेज दिया। तदनुसार 24 अगस्त 1820 को सरदार हरिसिंह श्रीनगर पहुंच गये और उन्होंने दीवान मोतीराम से वहाँ का कार्यभार संभाल लिया। काश्मीरी जितने सरल होते हैं उतने ही झूठे भी। सर फ्रांसिस या हसबन्ड ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि "काश्मीरियों के वचन पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता।" ऐसे लोगों पर प्रशासन करना बड़ा कठिन काम था। और फिर इससे पूर्व पाँच सौ वर्ष तक निरन्तर जिन पर विधर्मियों का अन्याय और अत्याचार भी होता रहा था। ऐसी स्थिति में उनका नैतिक स्तर गिर गया था तथा उनमे उच्च गुणों का लोप हो गया था।

हरिसिंह नलवा ने वहाँ पहुँचने पर जब राजकोष की जाँच की तो पता चला कि वह तो बिलकुल खाली है। राज्य में राजस्व की प्राप्ति बिल्कुल बन्द हो चुकी थी। सेना को चार मास से वेतन नहीं मिला था। राज्य में बलवा हो जाना, परस्पर झगड़ पड़ना तथा कभीकभी लूट-मार भी कर लेना, साधारण-सी बात हो गई थी। बहूबेटियों की मान-मर्यादा भी संकट में पड़ने लगी थी।

सरदार हरिसिंह को जब इस सारी स्थिति का ज्ञान हुआ तो उसने सर्वत्र ढिंढोरा पिटवा दिया कि बड़े परिश्रम और बलिदान के बाद अफगानों से काश्मीर का राज्य लिया गया है और हम चाहते हैं कि इस राज्य में उन अत्याचारों की पुनरावृत्ति न हो जो अफगानों के समय में हुआ करती थी। किन्तु यह सब तभी सम्भव हो सकता है जबकि प्रजा इसमें प्रशासन की सहायता करे। प्रशासन चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है, धन राजस्व से प्राप्त होता है। किन्तु बहुत-से लोगों ने राजस्व ही नहीं चुकाया। अतः उन लोगों से प्रार्थना है कि वे तुरन्त राजस्व चुका दें। यदि इस घोषणा के बाद भी हमें विदित हुआ कि प्रजा हमसे सहयोग नहीं कर रही है तो फिर हमें कठोर पग उठाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। इसी प्रकार की एक लिखित आज्ञा भी प्रसारित कर दी गई।

इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश कर-वंचकों ने अपना देय राजस्व राजकोष में जमा करा दिया। इस पर भी जो थोड़े सहज सीधे रास्ते पर नहीं आये उनके साथ ऐसा व्यवहार किया गया कि फिर कभी उनको विद्रोह करने का साहस ही नहीं हुआ। इतना ही नहीं, उनको देखकर शेष जन भी सहम गये। इस प्रकार वहाँ नलवा की धाक बैठ गई।

तो भी बारामूला के रईस और जेहलम नदी के दोनों किनारों पर बसनेवाले 'खक्खै' और 'बब्बे' मुसलमान विद्रोह कर ही बैठे। इस घोषणा के बाद भी जब उन्होंने राजस्व नहीं दिया तो सरदार हरिसिंह नलवा ने उन्हें ऐसा पाठ पढ़ाया कि वे भी कान पकड़ गये। उनसे अगला-पिछला सारा राजस्व ले लिया गया और उन्हें इसके लिए दण्ड भी भुगतना पड़ा। उनके विद्रोही नेता राजा गुलामअली खाँ और जुल्फिकार खाँ के पाँवों में भारी-भारी बेड़ियाँ डालकर उन्हें महाराज के पास लाहौर भेज दिया गया।

इस प्रकार जब काश्मीर में शान्ति स्थापित हो गई तो सरदार हरिसिंह नलवा ने उचित समय पर प्रजा पर से राजकर को घटा दिया। अकबर के समय काश्मीर का राजस्व 15 लाख के लगभग था। अफगानों के समय में वह बढ़कर 60 लाख हो गया था। दीवान मोतीराम ने उसको 21 लाख रखा। सरदार हरिसिंह नलवा ने उसको भी घटाकर 13 लाख कर दिया। इससे प्रजा को राहत मिली और राजशासन चलाने में भी कठिनाई नहीं हुई।

बड़े प्राचीन काल से वहाँ की प्रजा से शासकों द्वारा बेगार ली जाती थी अर्थात् प्रजा से राज्य का कार्य बिना पारिश्रमिक दिये करवा लिया जाता था। सरदार हरिसिंह नलवा ने इस बेगार प्रथा को बिलकुल बन्द करवा दिया। पठानों के समय में शाल बुनने का जो कार्य सर्वथा। बन्द हो चुका था नलवा ने उसको पुनः चालू करवाया। जन्म, सगाई और विवाह के अवसर पर काश्मीरियों से कर लेने की जो प्रथा थी । हरिसिंह नलवा ने उसको भी बन्द कर दिया। उसने चरान लगान कम कर दिया, जिससे चरवाहों ने अपनी भेड़ों की संख्या बढ़ा ली। इस प्रकार ढीला पड़ता हुआ पशमीने का कारोबार भी पनपने लगा।

प्रबन्ध को ध्यान में रखते हुए नलवा ने स्थान-स्थान पर थाने बनवा दिये। मुकदमे में दोनों पक्षों को प्रमाण और साक्षी लकर उपस्थित होने की आज्ञा दी जाने लगी और मुकदमा सुनते ही तुरन्त निर्णय भी दे दिया जाता था। काश्मीर में कई प्रकार के नाप-तोल प्रचलित थे। इस कारण धोखा-धड़ी होती थी और परस्पर झगडे भी। सरदार हरिसिंह नलवा ने उन सबको एक समान नाप-तोल रखने की आज्ञा प्रसारित कर दी।

हरिसिंह नलवा की मुद्रा

महाराजा रणजीतसिंह सरदार हरिसिंह नलवा के प्रबन्ध से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने नलवा को काश्मीर में अपनी मुद्रा चलाने का अधिकार प्रदान कर दिया। किन्तु हरिसिंह ने उसे स्वीकार नहीं किया। तब महाराज ने उसको पुनः लिखा कि वे काश्मीर में अपना सिक्का अवश्य चलायें, इसी में उनकी प्रसन्नता है।

इसके बाद सरदार हरिसिंह ने काश्मीर में अपनी मुद्रा चलाई। उस रुपए के एक ओर फारसी लिपि में 'श्री अकाल सहाय' और सम्वत् लिखा हुआ होता था और दूसरी ओर 'हरिसिंह' और उसके नीचे एक रुपया!'

इस प्रकार जब उन्होंने काश्मीर में शासन की सुस्थापित कर लिया तो फिर उन्होंने राज्य में भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। नलवा को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जहाँ कहीं भी उन्होंने कोई रमणीय स्थान देखा वहीं उनको पता चला कि वह कोई या तो पहले हिन्दू मन्दिर था अथवा कोई देव-स्थान। किन्तु अफगानों के राजत्वकाल में उस स्थान पर या तो कोई मस्जिद खड़ी कर दी गई थी या फिर कोई जियारतगाह। यहाँ तक कि सन् 179 से 181 में महाराजा नरेन्द्र द्वितीय द्वारा बनवाया गया नरेन्द्र स्वामी के मन्दिर को अफगान शासकों ने 'नरपीर की जियारतगाह' के रूप में परिणत कर दिया था।

इतना ही नहीं अपितु महा-श्री मन्दिर, जिसे महाराजा परिवारसेन द्वितीय ने बनवाया था, सन् 1404 में उसके प्रांगण में काश्मीर के शासक शाह सिकन्दर की बेगम की कब्र बनवा दी गई। उस दिन से ही वह मन्दिर मकबरे के रूप में परिणत हो गया। काश्मीर का शासक जैनुल आबदीन को भी बाद में इसी स्थान पर दफनाया गया। यह स्थान 'मकबरा शाही' के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

इसी प्रकार छठे पुल के निकट नदी के दाहिनी ओर स्कन्दगुप्त द्वारा बनवाए गये मन्दिर को मोहम्मद वाशू की जियारत का रूप दे दिया गया। उसके ही निकट सन् 684-693 में महाराजा चन्द्रापीड द्वारा बनाए गये त्रिभुवन स्वामी के मन्दिर पर एक मुसलमान पीर ने अत्याचार करके अधिकार कर लिया और उसे अपना स्मारक बनवा दिया। उसे 'टाँगा बाबा' कहते थे। मरणोपरान्त उसको वहीं दफना दिया गया। सन् 1404 में सिकन्दर ने जब वहाँ जामा मस्जिद बनवाई तो उसके निकट ही बने मन्दिर को तोड़कर उसकी सारी सामग्री को उस मस्जिद में लगवा दिया।

सुलेमान पर्वत की ऊँची चोटी पर महाराजा सिद्धिमान का बनवाया हुआ शंकराचार्य का एक बड़ा ही सुन्दर मन्दिर था। उसकी चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियाँ वहाँ से आरम्भ होकर नीचे जेहलम नदी तक पहुँचती थीं। ये सीढ़ियाँ मूल्यवान् पत्थरों से बनी थीं। सन् 1623 में जब नूरजहाँ बेगम बादशाह जहाँगीर के साथ श्रीनगर आई तो उसने उन बहुमूल्य और सुन्दर पत्थरों को उन सीढ़ियों पर से उखड़वाकर श्रीनगर में अपनी स्मृति में एक 'पत्थरवाली मस्जिद' बनवा दी। इस प्रकार खोज करने पर नलवा को विदित हुआ कि काश्मीर की कोई मस्जिद, मकबरा, जियारतगाह ऐसी नहीं थी जोकि किसी मन्दिर अथवा अन्य देव-स्थान के स्थान पर न बनी हो और जिसमें उसका सब सामग्री न लगी हो।

नलवा ने सोचा कि जब तक मुस्लिम अत्याचार और अन्याय क ये चिह्न विद्यमान हैं तब तक इस राज्य में हिन्दू-मुस्लिम प्रेम पनपना कठिन है। क्योंकि हिन्दू जब-जब इनको देखेंगे तो उनके मन में एक प्रकार का उद्वेग-सा उत्पन्न होगा। वह उद्वेग मुसलमानों के प्रति घणा ही उपजायेगा। परिणामस्वरूप नित्य नये झगड़े होते रहेंगे।

नलवा सरकार ने सोचा कि क्यों न हिन्दुओं के मन्दिर हिन्दुओं को वापस दिलवा दिये जाएँ और मुसलमानों के लिए भी मस्जिदों का प्रबन्ध करवा दिया जाय। इस दृष्टि से एक दिन हरिसिंह नलवा ने प्रतिष्ठित पण्डितों और मुखिया-मौलवियों की सभा बुलाई। सरदार नलवा को तब यह सुनकर और भी आश्चर्य हुआ जब उन पण्डितों ने मन्दिर तोड़कर बनाई गई मस्जिदों को उनके स्थान पर ही बने रहने का निवेदन किया। उनका कहना था कि उनको यदि हम अपने अधिकार में ले लेंगे तो मुसलमान उनके शत्रु बन जाएँगे और फिर वे उनका वहाँ रहना दूभर कर देंगे।

सरदार ने उनको समझाना चाहा कि वे तो यह सब वैर-विरोध सदा के लिए समाप्त कर देने के विचार से ही ऐसा कर रहे हैं। इस विषय में उन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों को ही अनेक प्रकार के आश्वासन दिये किन्तु काश्मीरी हिन्दू उसे स्वीकार करने को तत्पर नहीं हुए। फिर सरदार ने धमकी दी कि धर्मस्थानों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है, तब भी वे हिन्दू किसी प्रकार नहीं चेते। विवश सरदार हरिसिंह को भी अपना विचार भुलाना पड़ा।

पठानों का एक लज्जाजनक स्मारक अभी तक भी चला आ रहा था। उसके अनुसार हिन्दू लोग अपने सिर पर पगड़ी और पैर में जूता नहीं डाल सकते थे। जब कोई विद्वान् नंगे सिर और नंगे पाँव सरदार साहब से मिलने के लिए आता तो उनको इससे बड़ी ग्लानि होती थी और दुःख भी होता था। तब नलवा ने घोषणा करवा दी कि उनके राज्य में जो चाहे जैसा भी वस्त्र पहन सकता है, जूते डाल सकता है और घोडे पर सवार हो सकता है। किसी को किसी प्रकार की मनाही नहीं है। इस घोषणा के बाद ही हिन्दू पगड़ी बाँधने, जूता डालने और घोड़े पर सवारी करने लगे।

यद्यपि इस समय कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं और हिन्दू अल्पसंख्यक, परन्तु प्राचीन इतिहास से विदित होता है कि सन् 1400 से पहले समस्त काश्मीर हिन्दू राज्य था। वहाँ के हिन्दू और मुसलमानों के गोत्र और पारिवारिक नाम सप्रू, किचूल, पण्डित, बट्ट आदि जिस प्रकार हिन्दुओं में हैं उसी प्रकार मुसलमानों में भी हैं। काश्मीर के हिन्दुओं को किस प्रकार मुसलमान बनाया गया इसका हृदय-विदारक वर्णन हरगोपाल कौल द्वारा लिखित इतिहास तवारीख काश्मीर' में किया गया है।

नलवा को विदित हुआ कि बलात् मुसलमान बनाए गए अनेक हिन्दू परिवार पुनः हिन्दू बनना चाहते हैं किन्तु उनकी विरादरी उनको वापस लेने के लिए तैयार नहीं है। तब हरिसिंह ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि "जो पतित पुनः अपने धर्म में आना चाहता है उसका स्वागत होना चाहिए, उसके लिए किसी प्रकार की भी रुकावट उत्पन्न न की जाय। यदि किसी विरादरी ने इस कार्य में बाधा उत्पन्न की तो उसको दण्ड दिया जाएगा।"

इसका परिणाम यह हुआ कि सहस्रों पण्डित जो किसी समय भय के कारण मुसलमान बन गये थे अथवा बना लिये गये थे, वे पुनः हिन्दू धर्म में मिला लिये गये। ऐसा अनुमान है कि उस समय लगभग 50 हजार मुसलमान पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित हुए थे।

सरदार हरिसिंह नलवा ने काश्मीर की खेतीबाड़ी और उद्योग को भी उन्नत करने की प्रेरणा दी। वहाँ सुख-शान्ति स्थापित की। हिन्दू-मुस्लिम प्रेम बढ़ाया। शिया-सुन्नी का विवाद समाप्त किया।

राजस्व यथा-सम्भव प्राप्त होने लगा। उद्योग-धन्धे उन्नात करने लगे। सैनिकों को नियत समय पर वेतन मिलने लगा। इस प्रकार वहाँ पूर्णतया हिन्दू राज्य स्थापित हो गया तो फिर महाराजा रणजीतसिंह ने नलवा को किसी और महत्त्वपूर्ण स्थान पर नियुक्त करने के लिए वापस लाहौर बुलवा लिया।


काश्मीर से विदाई
जब महाराजा रणजीतसिंह को विदित हुआ कि काश्मीर में सब प्रकार से सुख-शान्ति है और वहाँ का शासन अब सुचारू रूप से चल रहा है तो उनको बड़ी प्रसन्नता हुई। हरिसिंह नलवा जैसा सेनानायक उनको अन्य कोई नहीं मिला था और उस जैसा प्रशासक भी उनकी दृष्टि में कोई नहीं था। ऐसे व्यक्ति को अपने आधीन पाकर महाराजा रणजीतसिंह स्वयं को गौरवशाली समझते थे।

महाराज उनकी योग्यता का लाभ अब अन्यत्र उठाना चाहते थे। उनको विश्वास हो गया था कि सरदार हरिसिंह नलवा ने काश्मीर में वह सुव्यवस्था स्थापित कर दी है कि अब कोई भी वहाँ का शासन सरलता से चल सकता है । अतः उन्होंने उसी प्रकार का एक पत्र सरदार हरिसिंह को लिखा। उसमें उन्होंने नलवा पर असीम विश्वास व्यक्त करते हुए वापस आने के लिए लिखा, जिससे कि खालसा राज्य के अन्य अनेक महान् कार्य उनके द्वारा सम्पन्न किये जा सकें। यहाँ तक कि महाराज ने लिखा कि उन्हें सर्वाधिक प्रसन्नता तो उस दिन होगी जब सरदार हरिसिंह नलवा पेशावर और जलालाबाद आदि को जीतकर वहाँ पर भी काश्मीर जैसी सुख-शान्ति का साम्राज्य स्थापित कर देंगे। महाराजा ने लिखा कि उनकी इच्छा है कि अफगानों के बचे हुए प्रदेश मुंघेर एवं डेरा-इस्माइल खाँ आदि को जीतकर उन्हें खालसा राज्य में सम्मिलित कर लिया जाए। इस महान् कार्य में नलवा का महाराज के साथ होना नितान्त आवश्यक है।

उन्होंने हरिसिंह नलवा के स्थान पर दीवान मोतीराम को वहाँ का गवर्नर नियुक्त कर भेज दिया। नलवा को लिख दिया कि महाराजा स्वयं लाहौर से पश्चिम की ओर कूच कर रहे हैं, इसलिए वे दीवान मोतीराम को वहाँ का प्रबन्ध सौंपकर उन्हें किसी पड़ाव पर ही मिल जाए। उन्होंने यह भी लिखा है कि यदि सम्भव हो तो नलवा उन्हें खुशाब के पड़ाव पर मिले जिससे कि अफगानों पर आक्रमण करने से पूर्व उनसे विचार-विमर्श किया जा सके।

सरदार हरिसिंह नलवा को पत्र मिला तो उन्होंने काश्मीर से कूच करने की तैयारी आरम्भ कर दी। विदा होने से पूर्व नलवा ने एक बहुत बड़ा दरबार किया, जिसमें उन्होंने समूचे प्रान्त के हिन्दू, सिख तथा मुसलमान मुखिया आमन्त्रित किये। उसमें उन्होंने उनके साथ बीते हुए दिनों का स्मरण कर उन्हें धन्यवाद दिया कि उन्होंने उनके साथ सहयोग किया जिसके कारण कश्मीर में सुप्रबन्ध हो सका और सुख-शान्ति स्थापित हुई। नलवा ने आशा व्यक्त की जिस प्रकार उन्होंने उनको सहयोग दिया है उसी प्रकार वे दीवान मोतीराम को भी सहयोग देंगे।

इसके उत्तर में बारी-बारी से सभी मुखियाओं ने नलवा का धन्यवाद किया, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की और उनको आश्वासन दिया कि वे भविष्य में दीवान मोतीराम को भी उसी प्रकार सहयोग देते रहेंगे जिस प्रकार कि उन्होंने उनको दिया था।

काश्मीर का उचित प्रबन्ध कर और वहाँ की बागडोर दीवान मोतीराम के हाथ में सौंपकर हरिसिंह नलवा ने 6 नवम्बर 1821 को अपनी सेना सहित वहाँ से प्रस्थान किया। काफी दूर तक वहाँ के निवासी नलवा को विदा करने के लिए आये। उस समय उन सबके आँखों में प्रेम और विषाद के आँसू झलक रहे थे। नलवा का वहाँ स जाना उनके विषाद का कारण था। उनके प्रति उन सभी को प्रेम हो गया था।

इस प्रकार हरिसिंह नलवा काश्मीर से विदा होकर अपनी 7 हजार सेना लेकर मुजफ्फराबाद और गढ़ी हबीबुल्लाखाँ के मार्ग से पखली के क्षेत्र में पहुंचे तो उनको समाचार मिला कि हजारा प्रान्त के जदून और तनावली लगभग 30 हजार सेना एकत्रित कर उनका मार्ग रोकने के लिए खड़े हैं। उनका विचार मांगली की घाटी में उनके साथ घोर युद्ध करने का था। नलवा व्यर्थ के रक्तपात से बचना चाहते थे, इसलिए उन्होंने पहले उन गाजियों को समझाने का यत्न किया। उन्होंने अपने दो मुसलमान तथा एक सिख सहायक को जदूनों और तनावलियों को समझाने के लिए भेजा कि इस समय सरदार हरिसिंह केवल उस मार्ग से आगे जा रहे हैं उनका विचार किसी प्रकार का आक्रमण करने का नहीं है।

जदून विशिष्ट स्वभाव के प्राणी थे। उनसे यदि कोई नम्रता का व्यवहार करता तो वे समझते कि अवश्य ही वह दुर्बल होगा इसलिए नम्रता का व्यवहार कर रहा है। इसलिए वे उसे दुर्बल जान उसकी बात स्वीकार नहीं करते। और यदि कोई उनके साथ बल प्रयोग करे तो वे तुरन्त उसकी अधीनता स्वीकार कर लेते। यही कारण है कि नलवा के दूत निराश होकर वापस लौट आए।

तभी एक घटना घटी। सहसा आकाश पर बादल छाए और फिर मूसलाधार वर्षा भी हो गई। आधा घण्टा बरसने के बाद फिर आकाश निर्मल हो गया और धूप छिटक गई। नलवा ने देखा कि मांगली के सभी निवासी मांगलियाँ लेकर अपनी छतों को कूट रहे हैं। तब सरदार को पता चला कि वहाँ की मिट्टी ही कुछ ऐसी है कि बिना कूटे ठीक प्रकार से बैठती ही नहीं। सरदार की समझ में आ गया कि यहाँ की मिट्टी ही कूटनी नहीं है अपितु यहाँ के निवासी भी कूटे बिना ठीक प्रकार से नहीं बैठते। उन्होंने अपने नायकों से कहा, "यहाँ की मिट्टी का नाम 'कूटनी मिट्टी' है। इसी प्रकार यहाँ के निवासी भी उसी प्रकार कूटकर ही ठीक किये जा सकते हैं।"

बस फिर क्या था। उन पर सहसा धावा बोल दिया गया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। हरिसिंह का एक सरदार मेघसिंह रूसा इस युद्ध में मारा गया, अन्यथा पहर-डेढ़ पहर में हिन्दू सेना ने दो हजार गाजियों को यमपुर भेज दिया। जदूनों की यह दशा देखकर तनावली और तरीने पठानों का साहस भंग हो गया। उनमें भगदड़ मच गई। तब तक अँधेरा भी हो गया था। उस अन्धकार ने उन गाजियों को भागने में सहायता पहुँचाई। मांगली पर सरदार हरिसिंह नलवा का अधिकार हो गया, लूट में बहुत-सी युद्ध सामग्री, अन्न, गायें, भैंसे, बैल आदि उनके हाथ आए।

एक दिन पहले अकड़कर बात करने वाले और लड़ने-मारने के लिए तैयार जदून और तनावली दूसरे दिन हाथों में सफेद झंडे लिये हुए सिर से नंगे अतिदीनता के साथ अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते हुए सरदार हरिसिंह की सेवा में उपस्थित होकर अपने प्राणों की भीख माँगने लगे। सरदार ने उन पर कुछ दण्ड निर्धारित किया।

युद्ध में मारे गए अपने वीर सैनिकों का दाह-संस्कार कर उनकी स्मृति में वहाँ एक चिह्न बनवाया और मांगली पर अपना प्रशासक नियुक्त कर उन्होंने 14 नवम्बर 1821 को वहाँ से प्रस्थान किया। 28 नवम्बर को वे खुशाब के पड़ाव पर महाराजा रणजीतसिंह से आ मिले।

महाराजा को मांगली विजय का समाचार पहले ही मिल गया था। अतः हरिसिंह नलवा के पड़ाव पर पहुँचने पर तोपों से उनको सलामी दिलवाई गई। महाराज इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने नलवा को अपने सीने से लगाकर कहा, मेरा वीर सेनापति खालसा के नाम को संसार में सूर्य के समान उज्ज्वल कर रहा है।

नलवा राजकोष में देने के लिए दो लाख रुपये काश्मीर से लाए। महाराज ने वहीं पर एक दरबार किया और वह सारा रुपया तथा हजारा का नया जीता हुआ प्रदेश पारितोषिक रूप में नलवा की भेंट कर दिया। नलवा की मुंघेर पर विजय

मंघेर प्रान्त अटक नदी की दाहिनी ओर दूर-दूर तक फैला हआ था। उसका वार्षिक राजस्व 10 लाख रुपया था। जिस समय नलवा ने मुंघेर पर चढ़ाई की उस समय वहाँ का शासक हाफिज अहमद खाँ था। अपने समय का वह बहुत ही कुशल योद्धा और घुड़सवार माना जाता था। मुंघेर तब अफगान राज्य का एक प्रदेश था। वह प्रदेश बड़ा रेतीला होने के कारण वहाँ पानी की भारी कमी थी। यही उस प्रान्त को जीतने में कठिनाई भी थी। जहाँ-जहाँ पानी के प्राकृतिक झरने थे, वहाँ-वहाँ नवाब ने दुर्ग बनवा दिये थे, इस प्रकार पानी का स्रोत घिर गया था जो किसी भी आक्रमणकारी को बिना दुर्ग पर अधिकार किये नहीं मिल सकता था। अत्यधिक गर्मी और पानी का अभाव किसी आक्रमणकारी का साहस तोड़ने के लिए ये पर्याप्त कारण थे।

नवाब के पास उस समय 25 हजार सेना थी। महाराजा ने सरदार हरिसिंह नलवा से विचार-विमर्श किया और फिर अपनी सेना को इस प्रकार विभक्त किया-सरदार दलसिंह और खुशहालसिंह को 8 हजार सेना के साथ डेरा इस्माइल खाँ की ओर के दुर्गों पर आक्रमण करने को नियत किया, जरनेल दीवानचन्द और कृपाराम को 10 हजार सेना के साथ खानगढ़ और मौजगढ़ पर आक्रमण करने का आदेश हुआ, सरदार हरिसिंह अपनी 7 हजार सेना लेकर मुंघेर और उसके मार्ग पर पड़ने वाले दुर्गों पर आक्रमण करने के लिए तैयार हुए।


इस प्रकार विभाजन हो जाने पर सरदार हरिसिंह की सेना ने तीन दिन के कड़े परिश्रम के बाद संग्राम करते हुए मार्ग के 7 दुर्गों पर अधिकार कर लिया। चौथे दिन प्रात:काल से पूर्व ही उन्होंने मुंघेर पर आक्रमण भी कर दिया।

हाफिज अहमद खाँ यद्यपि असावधान नहीं था किन्तु तदपि वह नहीं समझता था कि उस दिन प्रातःकाल उस पर आक्रमण कर दिया जाएगा। किन्तु आक्रमण होने पर पठान लोग बड़ी वीरता और उल्लास के साथ मैदान में उतर आए। बस फिर क्या था, तलवार से तलवार बजने लगी। घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। इस प्रकार चार दिन तक निरन्तर मुंघेर दुर्ग के लिए घमासान युद्ध होता रहा। पाँचवें दिन स्थिति बदल गई। उस दिन हिन्दू सेना ने दुर्ग की दीवार को तोपों से उड़ाकर नगर में प्रविष्ट हो उस पर अपना अधिकार कर लिया।

नगर पर अधिकार होते ही दुर्ग पर अधिकार की बारी थी। दुर्ग पर घेरा डाल दिया गया। दोनों ओर से गोले और गोलियों की बौछार होने लगी। नवाब के सैनिकों ने नगर के युद्ध में हिन्दू सेना का युद्धकौशल देख लिया था। पठानों के हृदय में उनका दबदबा बैठ गया। उसका परिणाम यह हुआ कि नवाब के सैनिकों ने उसका साथ छोड़कर प्राण-रक्षा के लिए भागना आरम्भ कर दिया।

19 दिसम्बर 1921 को प्रात:काल ही सरदार हरिसिंह नलवा ने दुर्ग के पश्चिमी द्वार पर के सामने अपनी तोपें अड़ा दीं। उसका परिणाम यह हुआ कि दिन ढलने से पूर्व ही दुर्ग का वह भाग धराशायी हो गया। बस फिर क्या था सरदार हरिसिंह अपने सैनिको के साथ दुर्ग में घुस गये। उस समय नवाब के पास वहाँ पर पाँच सहस्र सेना थी। उसने बड़ी वीरता के साथ नलवा का सामना किया। किन्तु नलवा की सेना के सामने उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। नवाब के पाँव उखड़ गए और वह अन्त:पुर में जाकर छिप गया। नलवा ने आज्ञा प्रसारित कर दी कि अन्त:पुर पर किसी प्रकार भी आक्रमण न किया जाय। अन्तःपुर पर कड़ा पहरा लगा दिया गया और शेष दुर्ग पर अधिकार कर लिया गया।

नवाब को अब अपने बचाव का कोई मार्ग नहीं दिखाई दिया। सेना पहले ही भाग गई थी। तब उसने अपने दो विश्वस्त कर्मचारी काजी गलमोहम्मद और आलीजह सिकन्दर खाँ को हरिसिंह नलवा के पास भेजकर कहलवाया कि 'उसको अपनी करनी का फल मिल चुका है, वह पश्चात्ताप कर रहा है, इसलिए उसे प्राणदान दिया जाय और साथ ही उसे अपनी बेगमों के साथ यहाँ से सकुशल निकल जाने दिया जाय।' सरदार हरिसिंह ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने विश्वस्त सैनिकों द्वारा नवाब को उसके सम्बन्धियों के साथ महाराज के पास भिजवा दिया, जिससे कि शेष निर्णय वे स्वयं कर सकें।

नवाब जब महाराज के पास पहुँचकर गिड़गिड़ाया तो महाराज ने उसको क्षमा कर दिया और उसको निर्वाह के लिए डेरा इस्माइल खाँ में एक बड़ी जागीर भी दे दी।

मुंघेर के दुर्ग में हिन्दू सेना को बहुत सारी युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। मुंघर पर अधिकार होने के बाद वहाँ की पानी की कठिनाई को देखते हुए सरदार हरिसिंह नलवा ने उस प्रान्त में विभिन्न स्थानों पर 20 कुएँ खुदवाये। सभी कुओं का पानी बहुत मीठा था। सरदार अमरसिंह सिद्धावालिया को वहाँ का गर्वनर नियुक्त कर हरिसिंह नलवा को साथ लेकर महाराज 27 जनवरी 1822 को लाहौर भी पहुंच गए।

इस राजसी दल ने लाहौर पहँचकर साँस लिया ही था कि तभी समाचार मिला कि हजारे में विद्रोह हो गया है। तत्काल जरनल दावानचन्द और कपाराम को हजारा की ओर भेज दिया गया जिससे कि वे विद्रोहियो को उनकी करनी का फल चखाए। महाराज चाहते थे कि प्रकार पेशावर पर उनका अधिकार हो जाए। किन्तु जब तक हजारा का विद्रोह शान्त न हो जाय तब तक यह कार्य सम्भव नहीं था।

मुजफ्फर खाँ की ही भाँति हजारे वाले हिन्दू सेना से पराजित होने पर शान्त हो जाते और फिर तुरन्त ही विद्रोह कर बैठते थे। महाराज समझ रहे थे कि जब तक कोई कुशल व्यक्ति उन पर शासन करने के लिए न भेजा जाएगा तब तक यह विद्रोह भड़कता ही रहेगा। उनकी दृष्टि सरदार हरिसिंह नलवा पर ही टिकी। उन्होंने उनको वहाँ का गवर्नर बनाकर भेज दिया। और सरदार नलवा 27 फरवरी 1822 को सालेह के क्षेत्र में जा पहुंचे।

हजारा पर नलवा की विजय

हजारा प्रान्त बड़ा हरा-भरा और सुन्दर है। तैमूर जब भारत से लौट रहा था तो इस स्थान की प्राकृतिक शोभा को देखकर उस पर मुग्ध हो गया। उसने उसको छोड़ना नहीं चाहा, अत: उसने वह प्रान्त अपने तुर्की सरदारों को जागीर में दे दिया था। तुर्की सरदारों ने उसकी देखरेख के लिए एक पटल-रखी जिसमें एक हजार सैनिक थे। तब से उनका नाम हजारा पड़ गया अर्थात् वह प्रदेश जिसकी रक्षा के लिए एक हजार सैनिक तैनात किये गये थे। उसका वास्तविक नाम उर्ग था। किन्तु तब से वह हजारा ही कहा जाने लगा था।

जैसा कि हम कह आए हैं कि हजारा में बार-बार विद्रोह उठता था। 1818 में जब विद्रोह हुआ तो वहाँ रावलपिण्डी के शासक सरदार मक्खनसिंह को भेजा गया था। उन्होंने विद्रोह दबा दिया था। किन्तु एक वर्ष बाद जब वह पुनः हजारा गया तो वहाँ के शासक न उसके साथ दोहरी चाल चली। ऊपर से तो उसके साथ नम्रता का व्यवहार करते रहे, उससे क्षमायाचना करते रहे किन्तु जब रात वह सोया हुआ था तो पठानों की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया।

साखनसिंह ने सामना किया और पठानों को भागने के लिए विवश कर दिया। तो भी भागते हुए किसी पठान ने मक्खनसिंह को भी मौत के घाट उतार दिया।

इस दुर्घटना का समाचार जब अटक के किलेदार सरदार हकमासिंह चिमनी को मिला तो वह तुरन्त वहाँ पहुँच गया और उसने सलतानपुर आदि उन गाँवों पर घेरा डाल दिया जहाँ मक्खनसिंह के हत्यारे के सम्बन्धी रहते थे और स्वयं हत्यारा जहाँ छिप गया था। चिमनी सरदार ने वहाँ ऐसा रक्तपात किया कि जिसमें न केवल मक्खनसिंह का हत्यारा अपितु उसके सभी सम्बन्धी भी मार डाले गए।

इसी प्रकार सन् 1820 में महाराजा ने राजकुमार शेरसिंह आदि को हजारा भेजा था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मैदानी क्षेत्र पर तो अधिकार कर लिया था किन्तु पहाड़ी प्रदेश को जीतने में कुछ कठिनाई हुई थी। वह भी उन्होंने जीत तो लिया था किन्तु उस युद्ध में उनका विश्वस्त नायक रामदयाल मारा गया था। उसका बदला लेने के लिए गंघागर पर्वत क्षेत्र के निवासियों को गोली से भून डाला गया। पठान त्राहि-त्राहि कर उठे। उन्होंने क्षमायाचना की और दण्ड आदि का भगुतान कर अपने प्राण बचाए थे।

उस समय सरदार अमरसिंह मजीठिया को उस प्रान्त का शासक नियुक्त किया गया था। तब करालों के मुखिया हसनअली खाँ ने विद्रोह किया था। मजीठिया ने उसको परास्त तो कर दिया किन्तु लौटते हुए उनकी सेना समुन्दकसी नाले में विश्राम कर रही थी कि पठानों के कुछ छिपे हए सैनिकों ने उन पर धावा बोल दिया। सरदार अमरसिंह ने उनकी खूब खबर ली और उनको बन्दी बना लिया। तभी उन बन्दियों में से एक ने अवसर पाकर सरदार पर खंजर का प्रहार किया जिससे वे परलोक सिधार गये। इस प्रकार उस प्रान्त में निरन्तर विद्रोह भड़कता रहता था।

तब महाराजा की आज्ञा से सरदार हरिसिंह नलवा 26 फरवरी 1822 को अपनी सेना सहित हजारा जा पहुँचे । जाते ही उन्होंने पहले सरदार अमरसिंह को धोखे से मारनेवाले कबीले के लोगों को दण्डित किया। एक दिन अकस्मात् ही नलवा हाशम खाँ कराल के प्रदेश पर टूट पड़े। सरदार ने उसको पकड़वाकर उसकी मुश्कें बंधवा दी, गाँव को आग लगाकर राख कर दिया। जिस समय उसको हरिसिंह के प्रमुख प्रस्तुत किया गया उस समय वह भय से थर-थर काँप रहा था। उसको कहा गया कि या तो वह अमरसिंह के हत्यारों को उनके सुपुर्द कर दे अन्यथा उसको भी तोप से उड़ा दिया जाएगा। हाशम खाँ ने प्राणों की भिक्षा माँगी और वचन दिया कि वह हत्यारों को उनके हवाले कर देगा। जब उन हत्यारों को नलवा के सम्मुख प्रस्तुत किया तो उनको तोप से उड़ा देने का आदेश दिया गया। हरिपुर दुर्ग का निर्माण

हजारा प्रान्त के निवासी बड़े युद्ध-प्रिय थे। उन पर शासन करना सरल कार्य नहीं था। उस समय हरिसिंह नलवा ने यही उपयुक्त समझा कि उनकी सम्मिलित भूमि पर एक सुदृढ़ दुर्ग बनाया जाय। दुर्ग बनवा दिया गया। सरदार तथा अन्यान्य नायकों ने सुझाव दिया कि उस दुर्ग का नाम सरदार हरिसिंह नलवा के नाम पर हरिपुर रखा जाय । तदनुसार उसका नाम हरिपुर रखा गया। भारत विभाजन के समय तक वह दुर्ग नलवा के स्मारक के रूप में उस स्थान पर विद्यमान था। दुर्ग तो अभी भी विद्यमान है, किन्तु उसका नाम अब हरिपुर किस प्रकार रह सकता है।

उस दुर्ग के निकट एक नगर भी बसाया गया था। उस नगर क चारों ओर एक सुदृढ़ दीवार बनाई गई। उसकी चार दिशाओं पर चार द्वार बनाए गये। उस प्रान्त में जल का कष्ट रहता था। उसके निवारण के लिए निकट की नदी, जिसका नाम दोड़ था, से एक नहर काटकर लाई गई। नगर निवासियों की पूजा-अर्चना के लिए नलवा ने वहाँ कमन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक मस्जिद बनवा दी। जब पानी का सप्रबन्ध हो गया तो नगर के चारों ओर उद्यान और पृष्प- वाटिकाएँ लग गईं।

इस प्रकार मैदानी प्रदेश पर जब सब प्रकार से सुख-शान्ति हो गई तो अब नलवा का ध्यान पर्वतीय क्षेत्र की ओर गया। इस प्रदेश में जदून, तिनावली और सोवाती लोग बसते थे। एक वर्ष पूर्व ये सब सरदार नलवा से करारी मात खा चुके थे। नलवा की शक्ति को जानते थे। इसलिए उनको वश में करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। न अधिक रक्तपात ही करना पड़ा। उस पहाड़ी प्रदेश पर भी आवश्यकआवश्यक स्थानों पर दुर्ग बनवा दिये गए और उनमें सेना रख दी गई। सेना के आवागमन की सुविधा के लिए सड़कें बनवाई गईं। इस प्रकार उस सम्पूर्ण हजारा प्रान्त में पूर्ण शान्ति स्थापित हो गई।


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