कर प्रणाली : वास्तविक अर्थशास्त्र एवं इसका महत्त्व

  कर प्रणाली : वास्तविक अर्थशास्त्र एवं इसका महत्त्व  



अर्थशास्त्र में दो चीजे शामिल होती है :

1. सरकार द्वारा पैसा इकट्ठा करने के तरीके और

2. सरकार द्वारा पैसा खर्च करने के तरीके


सारा अर्थशास्त्र अंततोगत्वा इन दो तरीको का विवरण है। अर्थशास्त्र के सभी विचारो, धारणाओ, नीतियों, सिद्धांतो आदि का अध्ययन इस नतीजे पर पहुँचने के लिए किया जाता है कि, सरकार पैसा किधर से लाएगी और कहाँ खर्च करेगी। ज्यादातर से भी ज्यादातर आर्थिक विशेषग्य अपनी पूरी जिन्दगी अर्थशास्त्र के सिद्धांतो पर ही जुगाली करते है, और इस नतीजे पर स्पष्ट रूप से कभी नहीं पहुंचना चाहते कि, पैसा इकट्ठा करने का तरीका क्या होना चाहिए।

खंड - १

(1) पैसा इकट्ठा करना : यहाँ पैसा इकट्ठा करने में 2 मदें शामिल है। आंतरिक लेनदेन करने के लिए सरकार को रुपया चाहिए, और अंतराष्ट्रीय लेन देन के लिए डॉलर।


1.1. रुपया : रूपये लाने के लिए सरकार टेक्स लगाती है। अत: आधा अर्थशास्त्र यह तय करना है कि, किस चीज पर कितना टेक्स लगाना है। बस, ये इतना ही है। सरकार की आर्थिक निति जो भी हो उससे देश की अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ एक चीज से फर्क पड़ता है कि – सरकार किस चीज पर कितना टेक्स डाल रही है। और भी स्पष्ट शब्दों मे कहे तो, सरकार रुपया किधर से इकठ्ठा कर रही है !! क्योंकि रुपया इकट्ठा करने का सरकार के पास एक मात्र सही रास्ता है -टेक्स लगाना।


1.1.1. टेक्स लगाना एक मात्र सही रास्ता क्यों है?

क्योंकि टेक्स सरकार की आय है। सरकार को निरंतर काम करते रहने के लिए अपने कर्मचारियों को भुगतान करना है, और सालाना खर्चे निकालने है। अत: सरकार को फंक्शन करने के लिए निरंतर पैसा चाहिए। टेक्स डालना इसी तरह का मेथड है। टेक्स का ढांचा यह तय करता है, सरकार अमुक टेक्स से हर महीने / साल कितना रुपया इकट्ठा कर लेगी, ताकि सरकार फंक्शन करती रहे।


यदि पैसा पूरा नहीं पड़ रहा है तो, सरकार के पास 2 रास्ते है -

1. या तो वह टेक्स बढ़ा देगी, या

2. खर्चों में कटौती करेगी।


लेकिन यदि सरकार पैसे की कमी पूरी करने के लिए सरकारी संपत्तियां बेचना शुरू करती है तो अर्थशास्त्र के हिसाब से ऐसा कोई रास्ता नहीं होता है। मतलब प्राचीन काल से लेकर आज तक दुनिया की किसी भी किताब में आपको यह लाइन लिखी हुयी नहीं मिलेगी कि, यदि सरकार के पास पैसा नहीं हो तो उसे अपनी राष्ट्रीय संपत्तियां बेचकर पैसा लाना चाहिए। यह इसी तरह की बात है कि, आप अपने घर की बिजली का बिल जमा करने के लिए घर के बर्तन बेचना शुरू करें।


1.1.2. देश की अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका :-

देश में करोड़ो उपभोक्ता है, लाखो फैक्ट्रियां, लाखों होलसेलर, लाखों रिटेलर, ट्रांसपोर्टर है और ये सभी लोग कुछ न कुछ बना रहे है, कुछ बेच रहे है, कुछ खरीद रहे है और प्रत्येक दिन करोड़ो लेन देन कर रहे है। लोग प्रवृत नियमो के अधीन रहते हुए सेवाओं। वस्तुओ को बनाते, बेचते, खरीदते, उपभोग करते है, और इससे अर्थव्यवस्था खुद ब खुद चलती रहती है। लोग सरकार से पूछने नहीं जाते कि हम क्या बनाएं, क्या बेचे, क्या खरीदें।


मेरा बिंदु यह है कि, अर्थव्यवस्था खुद चलती है। सरकार इसे चला नहीं सकती। सरकार नहीं होगी तब भी यह ऐसे ही चलती रहेगी। ईमानदारी की बात यह है कि, सरकार को इसमें न्यूनतम दखल करना चाहिए। क्योंकि जैसे ही सरकार अर्थव्यवस्था में दखल करने आएगी, कारोबार में डिस्टर्बेस शुरू होगा। लेकिन चूंकी सरकार चलाने के लिए पैसा चाहिए और पैसा इकट्ठा करने के लिए टेक्स वसूलना है, अत: सरकार को कारोबार में दखल करना पड़ता है। सबसे अच्छी अर्थव्यवस्था वह है जिसमें सरकार टेक्स लेने के दौरान कम से कम लोगो को डिस्टर्ब करें। जैसे जैसे सरकार का दखल बढेगा वैसे वैसे कारोबार में डिस्टर्बेस भी बढेगा, और डिस्टर्बेस बढ़ने से उत्पादकता गिरेगी।


तो इन सभी लोगो का एवं इनके लेनदेन का सरकार से अब तक कोई सरोकार नहीं है। किन्तु जैसे ही सरकार आकर बताती है कि हम अमुक वस्तु के लेनदेन पर इतना टेक्स लगाने वाले है, बस उसी बिंदु से सरकार का अर्थव्यवस्था से सरोकार शुरू होता है। हम किसी एक प्रोडक्ट जैसे मोबाईल फोन से इसे समझते है। यदि कोई व्यक्ति मोबाइल फोन से सम्बंधित कोई भी विनिमय करता है तो उसे निम्नलिखित सूचनाएं एवं जवाब चाहिए:


1. भारत में मोबाईल फोन बनाने वाले को क्या कोई कर चुकाना होता है ?

उत्तर : हाँ 


2. मोबाईल पर कौनसा टेक्स है ?

उत्तर : जीएसटी 


3. मोबाईल पर जीएसटी की दर क्या है?

उत्तर : 12% 


4. टेक्स जमा कौन कराएगा?

उत्तर : बेचने / बनाने वाला 


5. क्या कोई रिटर्न भरने पड़ेंगे?

उत्तर : हाँ, जितना टेक्स बन रहा है उसके हिसाब से मंथली / त्रेमासिक रिटर्न भरना है। 


6. मोबाइल एवं इसके पुरजो को इम्पोर्ट करने पर टेक्स कितना है ?

उत्तर : 15% 


7. एक्सपोर्ट पर ड्यूटी कितनी है ?

उत्तर : 2% 


8. मैं एक मोबाइल फोन खरीदता हूँ तो सरकार को टेक्स कितना देना पड़ेगा ?

उत्तर : 12% 


बस इसी तरह से सरकार को एक्साइज ड्यूटी, आयकर, प्रोपर्टी टेक्स, चुंगी आदि के बारे में तय करना होता है। अब मान लीजिये कि राजनैतिक पार्टीयां X, Y एवं Z है। X पूंजीवादी विचारधारा में मानती है, Y समाजवादी है, और Z मार्क्सवादी है। लेकिन तीनो के शासनकाल में यदि ऊपर दिए गए सवालों के जवाब समान है तो मोबाईल फोन खरीदने वालो, बनाने वालो और इसका कारोबार करने वालो पर सत्ता परिवर्तन का क्या असर आएगा? शून्य !!


और मोबाईल की अर्थव्यवस्था को सत्ता परिवर्तन कितना प्रभावित करेगा? लगभग नगण्य !! यदि अन्य पहलू मोबाईल की इकॉनोमी को प्रभावित कर रहे है तो वे आर्थिक कारण नहीं है। क्योंकि सभी आर्थिक परिवर्तन अल्टीमेटली टेक्स सिस्टम के माध्यम से ही लागू होंगे।

दुसरे शब्दों में, सरकार देश की आर्थिक नीति को कितना भी डिस्कस कर ले, अंत में उसे यह तय करना होता है कि, 1. किस चीज पर टेक्स डालना है, किस पर नहीं डालना है।  2. किस चीज पर ज्यादा टेक्स डालना है, किस पर कम डालना है। 3. टेक्स इकट्ठा करने का सिस्टम क्या होगा। 4. कोई टेक्स चोरी करे तो दंड क्या देना है


जब सरकार ऊपर दिए सवालों के जवाब तय कर लेती है तो इसे गेजेट में छाप देती है। मतलब, मान लीजिये कि मोबाइल फोन पर इम्पोर्ट ड्यूटी 4% है, और सरकार यह तय करती है इम्पोर्ट ड्यूटी घटाकर 1% करनी है तो वित्त मंत्री गेजेट में यह लाइन छाप देगा। और गेजेट में आने के साथ ही इम्पोर्ट ड्यूटी 1% हो जायेगी। अब इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि, कैबिनेट ने यह फैसला करने के लिए 1000 घंटे डिस्कस किया या 500 घंटे। काम की बात यह है कि सरकार ने गेजेट में छापा है कि हम मोबाइल पर अब से 1% ड्यूटी लेंगे। बस !! यदि अर्थशास्त्र की सारी डिस्कस के बाद भी यदि यह तय नहीं हो पाता कि गेजेट में क्या छापना है तो इसका मतलब है कि, वे लोग अर्थशास्त्र पर डिस्कसन के नाम पर पंचायती करके अपना टाइम पास कर रहे थे !!


अब मान लीजिये कि, देश में मंदी चल रही है या बेरोजगारी है तो सरकार इस पर कितना भी विचार करे लेकिन अंत में अर्थ मंत्री सिर्फ यह तय कर सकता है कि, मैं किस चीज पर कौनसा टेक्स डाल दूं या खत्म कर दूं कि बेरोजगारी की समस्या कम हो। लेकिन सिर्फ तय करने या फैसला लेने से कुछ होता है। क्योंकि सरकार ने जो भी तय किया है उसे लागू करने के लिए इसे गेजेट में निकालना पड़ता है। अत: अंत में अर्थ मंत्री को कागज पर वह इबारत लिखनी पड़ती है, जो उसे गेजेट में छापनी है। तो अर्थशास्त्र की सारी डिबेट, सलाह, मशविरे करने के बाद अंत में आपके हाथ में एक या कई कागज होते है जिन्हें गेजेट में छापा जाएगा।


1.2. डॉलर :- 

अंतराष्ट्रीय लेन देन के लिए सरकार को डॉलर चाहिए। यदि सरकार ने इस तरह का टेक्स सिस्टम डाला है कि सरकार का दखल बढ़ गया है, और लोग कम कीमत में सामान बनाकर अन्य देशो में बेच नहीं पा रहे है, तो निर्यात गिरने और आयात बढ़ने लगता है। निर्यात गिरने से सरकार के पास डॉलर की कमी हो जाती है।


निर्यात क्या है: माल बेचना निर्यात है। जब देश के लोग अन्य देशो को सामान बेचते है तो देश के गल्ले में डॉलर आते है। तो देश की दूकान जब अच्छी चलती है तो निर्यात बढ़ता है। 


आयात क्या है : जब देश अन्य देशो ने माल मंगवाता है तो गल्ले में से खर्चा करना पड़ता है। देश जब सामान खरीदता है यह आयात है। 


व्यापार घाटा क्या है : यदि देश ने 100 डॉलर का सामान बेचा, लेकिन 110 डॉलर का खर्चा कर दिया तो 100-110 = 10 डॉलर व्यापार घाटा है। 


दिवालिया होना क्या है: सरकार यह 10 डॉलर जुटाने के लिए देश की संपत्ति में से कुछ सामान विदेशियों को बेचकर यह घाटा पूरा कर लेगी। जब भी घाटा होगा कोई न कोई संपत्ति बेच दी जायेगी, और डॉलर ले लिए जायेंगे। कृपया इस बात को नोट करें कि चूंकि हमे डॉलर चाहिए अतःविदेशियों को ही बेचना पड़ेगा, या इस तरह बेचना पड़ेगा कि गल्ले में डॉलर आये। जब संपत्तियां ख़त्म हो जायेगी तो देश को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है।


अब सरकार को डॉलर की कमी पूरी करनी है। कृपया इस बात पर ध्यान दें कि, डॉलर टेक्स लगाकर नहीं लाया जा सकता। डॉलर लाने का सिर्फ एक तरीका निर्यात करना है। और निर्यात सिर्फ तब हो सकता है, जब आपके देश में बड़े पैमाने पर फैक्ट्रियां हो और फैक्ट्रियां ऐसी चीजो का उत्पादन करें जो सस्ती भी हो, और बेहतर भी। यदि देश सस्ती और अच्छी चीजो का उत्पादन नहीं कर पा रहा है , तो देश का निर्यात गिरता जाएगा और सरकार पर विदेशी मुद्रा संकट या डॉलर संकट आ जाएगा।


1.2.1. डॉलर इकट्ठा करने के तरीके क्या है?

निर्यात के अलावा सरकार किसी भी तरीके से डॉलर नहीं कमा सकती। निर्यात के अलावा सरकार डॉलर जुटाने के लिए जो भी तरीके अपनाती है उन्हें तिकड़मे कहा जाता है। तिकड़म इसीलिए, क्योंकि निर्यात के अलावा डॉलर जुटाने के शेष सभी तरीको में देश को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। और इस नुकसान को छुपाने के लिए सरकारें नागरिको से 50 झूठ बोलती है। [ निर्यात के अलावा कुछ फुटकर डॉलर पर्यटन आदि से भी आते है। पर सिर्फ छोटे देश (City Country) ही इस पर निर्भर हो सकती है।]

निचे भारत के पिछले 10 वर्षों के व्यापार घाटे का चार्ट है। कम्प्लीट लोस! एक भी वर्ष नहीं जिसमें भारत ने कमाई की हो। हर वर्ष आयात ज्यादा और निर्यात कम। पिछले 30 वर्षों का भी हिसाब किताब ऐसा ही है। और पिछले 70 वर्षों का भी यही हिसाब है!


1.2.2. सरकार की आर्थिक नीति यानी कि टेक्स प्रणाली का आकलन कैसे करें?

पहली बात तो आपको यह अच्छी तरह से समझ लेनी है कि, सरकार की आर्थिक नीति जो कुछ भी हो उसका अंतिम नतीजा टेक्स सिस्टम है। अत: सरकार द्वारा लगाए गए टेक्स सिस्टम को देखें। थोडा लॉजिकल तरीका यह है कि, आप टेक्स कानून पढ़े, और यह देखे कि अमुक टेक्स सिस्टम से देश का निर्यात बढेगा या नहीं। यदि आप टेक्स सिस्टम नहीं समझना चाहते तो सीधे निर्यात के आंकड़े देख लीजिये। यदि निर्यात गिर रहा है तो समझ लीजिये कि कुल मिलाकर सरकार देश की बैंड बजा रही है। हालांकि, आप यदि पेड मीडिया से नियमित रूप से फीडिंग लेते है, पेड अर्थशास्त्रियों के कॉलम वगेरह पढ़ते है, और उनकी पेड डिबेट देखने के आदि है तो आपको यह नजर नहीं आएगा।


तो जब सरकार बदतर कर प्रणाली डालती है तो निर्यात गिरने लगता है, और सरकार के सामने डॉलर संकट खड़ा हो जाता है। और अब सरकार डॉलर जुटाने के लिए नयी नयी तिकड़मे लगानी होती है।


1.2.3. सरकारें डॉलर इकट्ठा करने के लिए सरकार किन तरीको का इस्तेमाल करती है?

कर्जे लेना : समस्या यह है कि विश्व बैंक एवं आई एम् ऍफ़ कर्जे देने से पहले ऐसी शर्ते लगाते से जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशियों का नियंत्रण बढ़ जाता है। तो जब हम कर्जा लाते है तो नीतियां बनाने की स्वतंत्रता में कटौती कर लेते है !!


विदेशी निवेश : जब कर्जे मिलने बंद हो जाते है, तो वे विदेशियों को भारत में पूँजी लगाने के लिए कहा जाता है। जब विदेशी पूँजी लेकर आते है तो सरकार के पास उतनी मात्र में डॉलर आ जाते है।


विदेशी निवेश के साथ समस्या - पूंजीगत विदेशी निवेश एक प्रकार का दायित्व है, और रिपेट्रीएशन क्राइसिस जनरेट करता है। मतलब विदेशी कम्पनी भारत में जितना भी मुनाफा रुपयों में कमाती है, हमें उसके बदले डॉलर देना पड़ता है। इस तरह विदेशी कम्पनी 10 करोड़ डॉलर का निवेश करके कुछ ही वर्षों में मुनाफ कमाकर 20 करोड़ डॉलर कर लेती है, और अब हमें दोगुने डॉलर चुकाने पड़ते है। भारत इस समय इसी शिकंजे में है। मतलब डॉलर लाने का यह तरीका डॉलर संकट को और भी बढ़ा देता है !! रिपेट्रीएशन क्राइसिस ऐसा शब्द है जिससे सभी पेड अर्थशास्त्री अत्यंत घृणा करते है। आप उनके सामने इस शब्द का इस्तेमाल करेंगे तो आर्थिक विशेषग्य अर्थव्यवस्था की चर्चा में रुचि नहीं दिखाना कम कर देंगे।


विनिवेश यानी बिकवाली : जब और विदेशी निवेश आना बंद हो जाता है तो सरकार देश की राष्ट्रिय संपत्तियां विदेशियों को बेचकर डॉलर इकट्ठा करना शुरू कर देती है। राष्ट्रीय संपत्तियां यानी कि आवश्यक सेवाएं देने वाले सार्वजनिक उपक्रम जैसे रेल, संचार, रक्षा, मीडिया, बैंक , माइंस, खनिज, जंगल आदि।


तो अर्थशास्त्र की समझ का सार इस तरह से है : सरकार रुपया इकट्ठा करने के लिए टेक्स लगाती है। अत: अर्थशास्त्र समझने के लिए आपको यह देखना चाहिए कि सरकार का टेक्स का ढांचा किस तरह का है। यदि करो (tax) का ढांचा औचित्यपूर्ण नहीं है तो फैक्ट्रिया लगाना कठिन होता जायेगा, लागत बढ़ेगी और उत्पादन गिरने लगेगा।


उत्पादन घटने से आयात बढेगा और निर्यात गिरेगा। और जब निर्यात गिरेगा तो सरकार के सामने डॉलर की कमी होगी, और वे फर्स्ट राउंड में कर्जे लेंगे, सेकेण्ड राउंड में विदेशियों को बुलाकर पूँजी लगाने को कहेंगे, थर्ड राउंड में राष्ट्रिय संपत्तियों को बेचना शुरू कर देंगे, और जब सभी राष्ट्रिय संपतियां बिक जायेगी तो टाट उलट देंगे !!

(कृपया ऊपर दिए गए सार को फिर से पढ़ें)


(2) आर्थिक विशेषज्ञों की पुस्तकों, लेख, कॉलम, मशविरो आदि के बारे में :-

सभी अर्थशास्त्री पेड अर्थशास्त्री होते है। जब भी कोई अर्थशास्त्री कुछ अभिव्यक्त करता है तो यह उसकी अपनी राय नहीं होती। बल्कि यह वह राय होती है, जिसके लिए उसे भुगतान किया गया है। चूंकि आर्थिक विशेषग्यों एवं अर्थशास्त्रीयों को भुगतान धनिक वर्ग द्वारा किया जाता है, अतः सभी पेड अर्थशास्त्री ऐसी कर प्रणाली का समर्थन करते है जिससे धनिक वर्ग को अतिरिक्त मुनाफा हो।


इसके अलावा पेड आर्थिक विशेषज्ञों का मुख्य लक्ष्य कार्यकर्ताओ का समय बर्बाद करने के लिए उन्हें अर्थशास्त्र के नाम पर फालतू की बहस में उलझाए रखना है, ताकि समाधान को टाला जा सके। मूलत: ये लोग टाइम वेस्टर है, जो अर्थशास्त्र के नाम पर नागरिको का बड़े पैमाने पर समय बर्बाद करने के लिए कच्चा माल उपलब्ध करवाते है। अत: हमारा मानना है कि, जब भी अर्थशास्त्र पर विचार किया जाए तो "अर्थशास्त्री" वह व्यक्ति है जिसे नहीं सुना जाना चाहिए।


(2.1) यदि कोई पेड अर्थशास्त्री या पेड आर्थिक विशेषग्य आर्थिक नीतियों पर बहस चला रहा है या आर्थिक नीतियों पर मशविरे प्रसारित कर रहा है तो आप उससे निचे दिए गए तरीके से पेश आ सकते है :-


1. यदि कोई पेड अर्थशास्त्री कहता है कि - भारत की अर्थव्यस्था बुरे दौर से गुजर रही है तो उससे पूछिए कि, क्या आप मुझे वह इबारत लिखकर दे सकते है जिसे गेजेट में छापने से अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा? 


2. यदि कोई पेड अर्थशास्त्री कहता है कि - भारत में बेरोजगारी बढ़ रही है तो उससे पूछिए कि, क्या आप मुझे वह इबारत लिखकर दे सकते है जिसे गेजेट में छापने से बेरोजगारी में कमी आएगी? 


3. यदि अर्थशास्त्री कहता है कि - जीएसटी की वजह से मंदी आ गयी है तो उनसे पूछिए कि, जीएसटी की कौनसी धाराएं मंदी के लिए जिम्मेदार है, और क्या आप वे धाराएं लिखकर दे सकते है जिन्हें अमुक धाराओं से बदला जा सके ?


4. आर्थिक विशेषग्य से पूछिए की, क्या वह ऐसी इबारत लिखकर दे सकता है, जिसे गेजेट में छापने से भारत का निर्यात बढेगा? 

5. यदि कोई आर्थिक विशेषग्य गिरती हुयी जीडीपी पर डायलॉग मार रहा है तो उससे कहिये कि जीडीपी क्यों गिर रही वो बात मुझे पता है, लेकिन जीडीपी को बढ़ाना कैसे है वो मुझे पता नहीं है। तो क्या आप लिखकर दे सकते है कि, जीडीपी बढाने के लिए सरकार को गेजेट में क्या छापना चाहिए?


आप देखेंगे कि, वे आपको पूरी जिन्दगी उलझाए रखेंगे लेकिन उपरोक्त प्रश्नों के जवाब नहीं देंगे। वे टीवी पर आकर पंचायत करेंगे, अखबारों में मशविरे देंगे, 500 पेज की पुस्तकें लिखेंगे, और न जाने किस किस तरह के विश्लेषण करेंगे, लेकिन वे कभी भी आपको एक पेज भी लिखकर नहीं देंगे कि अमुक टेक्स क़ानून की अमुक गड़बड़ी है और इसे दूर करने के लिए यह इबारत गेजेट में छापी जानी चाहिए।


(2.2) पेड आर्थिक विशेषग्य कभी भी स्पष्ट एवं लिखित में सुझाव क्यों नहीं देते?

इनके सारे मशवरे और सलाहे अस्पष्ट एवं जबानी होती है। अस्पष्ट और जबानी इसीलिए क्योंकि यदि ये लिखित में ड्राफ्टेड स्टेंड ले लेंगे तो पैसा मिलने पर आइन्दा इधर से उधर पाला नहीं बदल सकेंगे। तो वे वात ही ऐसी कहते है जिसका या तो कोई अर्थ नहीं होता, या उसका जो भी अर्थ निकालना हो वह निकाला जा सके !!


इनकी दशा उस आर्किटेक्चर की है जो साईट पर खड़ा होकर घंटो तक यह भाषण देता है कि इमारत ऐसी होनी चाहिए वैसी होनी चाहिए, इतनी ऊँची, उतनी चौड़ी होनी चाहिए, इसका डिजाइन भूकम्परोधी होना चाहिए आदि आदि। लेकिन जैसे ही आप कहते हो कि क्या आप आपके द्वारा सुझाई गई इमारत का नक्षा बनाकर दे सकते हो तो वह गायब हो जाता है !!


और फिर जब आप इमारत बना देते है तो यह आदमी लोगो को बताता है कि देखो अमुक इमारत का अमुक स्तम्भ छोटा है, और इस वजह से इमारत जल्दी ही गिर जाएगी। पर जब आप इससे कहेंगे कि ठीक है मैं इस स्तम्भ को गिरा कर फिर से बना देता हूँ, लेकिन आप नक्षा बनाकर दे दीजिये कि इस स्तम्भ का साइज़ क्या लेना है, और कहाँ से उठाना है तो यह आदमी हवा में ऊँगली घुमाकर बतायेगा कि स्तम्भ कैसा होना चाहिए, और फिर से फरार हो जायेगा। पर यह आपको नक्षा बनाकर कभी नहीं देगा!!


इन बौद्धिक फुरसतियों पर इतना लम्बा इसीलिए लिखा गया है, क्योंकि ये लोग सही अर्थशास्त्र को समझने में नागरिको की सबसे बड़ी बाधा है !! अत: जब तक आप इन्हें सुनने-पढ़ने में अपना समय जाया करते रहेंगे तब तक ये आपको अंगेज करके रखेंगे और आपको टेक्स सिस्टम तक पहुँचने नहीं देंगे !! और जब तक आप टेक्स सिस्टम तक नहीं पहुंचते तब तक आप अर्थशास्त्र नहीं समझ सकते।


(3) भारत की कर प्रणाली सुधारने के हमारा प्रस्ताव :

हमारा मानना है कि भारत में 2015 तक एक बदतर कर प्रणाली थी। इसी बदतर कर प्रणाली की वजह से भारत तकनीकी वस्तुओ का उत्पादन करने में पिछड़ता चला गया। उत्पादन गिरने से भारत का निर्यात हमेशा कम एवं आयात अधिक रहा। 1990 तक हम जैसे-तैसे कर्जे लेकर काम चलाते रहे। जब कर्जे मिलने बंद हो गए तो हमने देश चलाने के लिए सोना गिरवी रखा। 91 में WTO और IMF की शर्ते मान कर हमने द्वितीय चरण में प्रवेश किया, और एफडीआई के माध्यम से पूंजीगत निवेश मांगकर डॉलर लेने शुरू किये। विदेशी निवेश ने हम पर डॉलर पुनर्भरण रिपेट्रीएशन क्राइसिस का भार डालना शुरू किया और हम पर डॉलर संकट के दुष्चक्र में फंस गए।


फिर हमने तीसरे चरण में प्रवेश किया, और अपनी राष्ट्रिय संपत्तियां बेचनी शुरू की। जितनी मनमोहन सिंह जी से बिकी उन्होंने बेच दी। अब मोदी साहेब बेच रहे है। और जब तक हम निर्यात नहीं बढ़ाते तब तक यह दुश्चक्र रुकने वाला नहीं है।


अब इस बेचान को कवर करने के लिए पेड मीडिया के स्पोंसर्स ग्लोबलाइजेशन, उदारीकरण, विदेशी निवेश, ग्रोथ रेट, विकास दर, जीडीपी, पीपीपी मोड, प्राइवेटाईजेशन, भूमंडलीकरण, इन्वेस्टमेंट, डिस इन्वेस्टमेंट, टिस इन्वेस्टमेंट, ट्रिलियन डॉलर इकॉनोमी, जिलियन डॉलर इकॉनोमी, आर्थिक विकास, आर्थिक शक्ति, डिजिटल इन्डिया, मेक इन इण्डिया और न जाने कैसी कैसी टर्स की खोज करते रहते है !! इन्ही शब्दों के लेबल बनाकर उन्होंने कई प्रकार के सिद्धांत पेड मीडिया के माध्यम से उछाल रखे है। देश की आर्थिक नीतियों पर बहस करने वाले कार्यकर्ता कई दशको से इन सिद्धांतो की जुगाली रहे है।


इस पूरी जाजम को हटाकर आप देखेंगे तो आपको एक चीज साफ़ नजर आएगी- भारत का निर्यात गिरता जा रहा है, गिरता जा रहा है, और गिरता जा रहा है। चूंकि निर्यात गिरता जा रहा है अत: डॉलर लाने और विदेशी पूँजी खींचने के लिए सरकार भारत के विभिन्न क्षेत्र विदेशियों को सौंपती जा रही है, सौंपती जा रही है। और विदेशी निवेश आने से हम पर डॉलर पुनर्भुगतान (रिपेट्रीएशन) का बोझ और भी बढ़ रहा है, और फिर इसे कवर करने के लिए हम संपत्तियां बेच रहे है। जब बेचने को कुछ बचेगा नहीं तो हम जमा हो जायेंगे !!


मोदी साहेब के आने के बाद भी भारत का निर्यात नहीं बढ़ा। बल्कि इस वर्ष में यह घाटा रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है -- India's trade deficit reaches a record high of $176 billion in 2018-19


तो भारत में 2015 तक एक बदतर कर प्रणाली थी, जिसे मोदी साहेब ने बदतरीन कर प्रणाली से बदल दिया है !! जीएसटी बदतरीन है। यह उतना बदतर है कि इससे बदतर टेक्स सिस्टम डिजाइन ही नहीं किया जा सकता। जीएसटी लागू करने के लिए मनमोहन सिंह जी ने काफी प्रयास किये थे। लेकिन विरोध के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। और सत्ता में आने के बाद मोदी साहेब ने इसे लागू किया !!


किस तरह जीएसटी अगले कुछ ही वर्षों में भारत की लाखों छोटी-मझौली फैक्ट्रियो को बंद करके सारा कारोबार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथो में पहुंचा देगा इस बारे में विस्तृत विवरण अध्याय (10) में देखें। टेक्स सिस्टम सुधारने के लिए हमारा प्रस्ताव जीएसटी हटाकर रिक्त भूमि कर लागू करने का है। रिक्त भूमि कर से हमें इतना पैसा आ जायेगा कि जीएसटी की जरूरत नहीं रह जायेगी। गेजेट में प्रकाशित करने के लिए रिक्त भूमि कर का प्रस्तावित ड्राफ्ट 👇👇👇

https://drive.google.com/drive/u/0/mobile/folders/1JUDoFKDKaccw11MpNOXpfJU4ym69T2dQ?usp=sharing


हमारा आकलन है कि रिक्त भूमि कर आने से भारत में बड़े पैमाने पर स्थानीय स्तर पर कारखाने लगने शुरू होंगे और सिर्फ 3-4 साल के भीतर ही भारत का निर्यात आयात की तुलना में बढ़ जाएगा। और यदि हम अपना निर्यात बढ़ाने कामयाब हो जाते है तो बेरोजगारी, महंगाई, आदि जैसी चिल्लर समस्याएं निर्यात बढ़ने की प्रक्रिया के दौरान ही हल हो जायेगी।


खंड - २

(1) पैसा खर्च करना:

पैसा इकट्ठा करने के बाद अर्थशास्त्र का दूसरा हिस्सा है पैसा खर्च करना।


सरकार जो भी पैसा इकट्ठा करेगी, उसे कहाँ और किस जगह पर खर्च करेगी इसका एक सालाना ब्यौरा बनाती है। इस ब्यौरे को बजट कहते है। वैसे अर्थशास्त्र के बेहतर या बदतर होने को मुख्य रूप से टेक्स सिस्टम ही प्रभावित करता है। मतलब जब भी आप अर्थव्यवस्था का अध्ययन करें तो बजट पर न्यूनतम भार दें या इसकी अवहेलना करें। क्योंकि उत्पादकता, बेरोजगारी, महंगाई, निर्यात, तकनिकी निर्माण आदि महत्त्वपूर्ण पहलूओ को टेक्स सिस्टम प्रभावित करता है, बजट नहीं। बजट में सिर्फ सरकार का फुटकर भ्रष्टाचार, और निकम्मापन दृष्टिगत होता है।


(2) सरकारें बजट किस तरह बनाती है ?

इसकी एक मद में केन्द्रीय / राज्य कर्मचारियों के वेतन और सरकार के स्थायी खर्चे शामिल होते है, और इस मद में लगभग कोई बड़ा नीतिगत बदलाव नहीं आता। स्थायी खर्चों को निकालने के बाद जिस राशि को खर्च किया जाना है उसे खर्च करने के लिए सरकारें अपने सामने यह आदर्श रखती है कि - पैसा इस तरह खर्च किया जाए कि खुद की एवं अपने आदमियों की जेब में ज्यादा से ज्यादा पैसा पहुँचाया जा सके। और अमूमन इसके लिए वे ज्यादा से ज्यादा योजनाएं बनाते है !!


योजनाएं दो प्रकार की होती है :-

• बिना बजट की योजनाएं

• बजट वाली योजनाएं


2.1. बिना बजट की योजनाएं :- 

बिना बजट की योजनाओ में निष्पादन के लिए कोई बजट नहीं बनाया जाता। और जब योजना में कोई बजट ही नहीं है तो हेराफेरी करने का अवसर भी नहीं होता। उदाहरण के लिए, जनधन योजना केवल एक नोटिफिकेशन था। सरकार ने एक नोटिफिकेशन निकाला और योजना लागू हो गयी। अमूमन, सरकारें काफी बिजी होती है और इस तरह के काम करती ही नहीं है, जिससे नोट या वोट नहीं बनाए जा सके। किन्तु जनधन योजना नोटबंदी नामक घोटाले की तैयारी थी। अत: इसे निकालने का कष्ट उठाना पड़ा !!


2.2. बजट वाली योजनाएं :- 

बजट वाली सभी योजनाएं घोटाले है। घोटाला नहीं करना हो तो बजट वाली कोई योजना चलाने की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ कानून छापकर ही सरकार अपने सभी लक्ष्य हासिल कर सकती है। किन्तु यदि आपको पैसा बनाना है, तो आपको योजनाएं चाहिए। दरअसल, प्रशासन इस तरह काम करता है कि बड़े पैमाने पर घोटाले करना, और फिर आसानी से बच निकलना उतना आसान नहीं होता। तो नेताओं ने कानूनी रूप से घोटाले करने का एक मेकेनिज्म डेवलप किया। सभी योजनाएं घोटालो के इसी मैकेनिज्म को बनाने के लिए चलायी जाती है। मैकेनिज्म यह है कि किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए अलग से एक स्कीम बनाओ, और करोड़ो अरबों रुपया इस स्कीम के नाम पर एलोट कर दो। इस बजट को खर्च करने का जिम्मा फिर किसी मंत्री को दे दो। अब मंत्री इस राशि को खर्च करने का पूरा नया खाका इस तरह तैयार कर लेगा कि पैसा बनाया जा सके !!

कुछ उदाहरणों से समझते है कि योजनाओ एवं कानूनों में क्या अंतर है, और कौन सा उपाय बेहतर तरीके से समस्या को सुलझाता है ?



2.2.1. रिक्त भूमि कर Vs आवास एवं रोजगार योजनाएं

जमीने महंगी है, इसीलिए दूकान और कारखाने लगाने की लागत बढ़ जाती है तथा कई लोग महंगी जमीन होने के कारण इससे पूरी तरह से वंचित हो जाते है। जमीन की लागत ज्यादा जबकि मकान बनाने में खर्च कम आता है। जिन जिन ने अपना घर बनाया है वे आपको बताएँगे कि उन्होंने अपने जीवन में जितना बचाया उसमे से अधिकाँश घर बनाने में ही लग गया। महंगाई एवं गरीबी का कारण भी जमीन की ऊंची कीमते है। जमीनों की कीमते आसमान इसीलिए छू रही है क्योंकि भारत में किसी भी व्यक्ति को असीमित भूमि खरीदने की "करमुक्त" छूट है। 

इस वजह से जमीन खरीदना एक अच्छा निवेश बन गया है। अतः भ्रष्ट जज, भ्रष्ट अधिकारी, भ्रष्ट नेता एवं धनिक वर्ग अपने धन का निवेश जमीनों के "संचय" में करते है। क्रय शक्ति अधिक होने के कारण एक बेहद छोटे वर्ग ने देश की जमीनों का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया है, और समस्या यह है कि, ये वर्ग इन जमीनों का इस्तेमाल उत्पादकता बढ़ाने में भी नहीं करता। वे बस रुपया कमाते है और जमीने खरीद कर पटक देते है।


यदि भारत में 1% सालाना की दर से रिक्त भूमि कर लागू कर दिया जाता है तो शहरी क्षेत्रो में जमीनों की कीमतों में लगभग पांच से दस गुना तक की कमी आ जायेगी। जमीनों की कीमतें गिरने से कारखाने लगाना, दुकान करना एवं घर बनाना सस्ता हो जाएगा। यदि शहरी क्षेत्रो में जमीनों की कीमतें 5 गुना भी कम हो जाती है तो जमीन खरीदकर घर बनाना एवं कारखाना लगाना करोड़ो लोगो के दायरे में आ जाएगा। फिर सरकार को इन्हें आवास दिलाने का वादा करने की जरूरत नहीं है।


सरकार बस जमीन सस्ती करने का कानून छाप दे। लेकिन सरकार जमीन सस्ता करने का कानून नहीं छापती, बल्कि प्रधानमंत्री आवास योजना, मुख्यमंत्री आवास योजना आदि के नाम पर कई हजार करोड़ का बजट बनाती है। सरकार यह घोषणा करती है कि हम 10 लाख लोगो को मकान देंगे। और फिर कई हजार करोड़ के इस बजट को खर्च करने के दौरान मंत्री / नेता / सांसद / विधायक / अफसर / पार्टी के कार्यकर्ता आदि हर स्तर पर पैसा बनाते है!!


उदाहरण के लिए, सबसे पहले तो वे इसमें से 100-200 करोड़ इस योजना के बारे में लोगो को जागरूक करने के लिए विज्ञापनों की मद में अलग निकाल देते है और यह राशि टीवी चैनल्स / अखबारों को पहुंचा दी जाती है। यह पेड मीडिया के लिए पेमेंट है। जिन जिन मीडिया हाउस को पेमेंट हो जायेगी, वे इस योजना के घोटालो की रिपोर्टिंग नहीं करेंगे। आप टीवी-अखबारों में विभिन्न योजनाओं के जितने भी विज्ञापन देखते है यह सरकार द्वारा मीडिया को दी जा रही पेमेंट है !! बीच में कोई मीडिया हाउस सरकार के खिलाफ कोई झमेला खड़ा करने लगेगा तो सरकार कुछ करोड़ निकाल कर उन्हें विज्ञापन के नाम पर दे देगी। अब मकान बनाने की जगह तय करने के दौरान पैसा बनाया जाएगा। सरकार के मंत्री / सांसद / विधायक अमुक जगह के आस पास पहले बड़े पैमाने पर जमीन खरीदेंगे, या उन बिल्डरों से पैसा खींचेगे जिनकी जमीन अमुक क्षेत्र के आस पास है। अब जब वहां पर मकान बनने शुरू होंगे तो आस पास की जमीन की कीमतें डबल हो जायेगी और मंत्री जी अपनी जमीन बेच देंगे। फिर जिस बिल्डर | कोंट्रेक्टर को ठेके दिए जायेंगे उनसे 25% से 30% (जो कि कई सौ करोड़ में होता है) राशि घूस में ली जायेगी। इस तरह हर चरण में स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रिय स्तर तक योजनाओं को लागू करने के लिए पैसा बनाया जाता है। आम तौर पर यदि किसी योजना का बजट 1000 करोड़ रूपये का है तो वे इसका 50 से 60% आपस में ही बाँट लेते है।


2.2.2. रिक्त भूमि कर Vs स्किल इण्डिया

ऊपर मैंने बताया कि यदि जमीन सस्ती हो जाए तो बड़े पैमाने पर कारखाने लगेंगे, और इस वजह से बड़ी संख्या में रोजगार जनरेट होगा। लेकिन यदि प्राइवेट लोग कारखाने लगायेंगे और रोजगार पैदा होगा तो सरकार में बैठे मंत्री पैसा कैसे बनायेंगे। अत: वे रिक्त भूमि कर लाने की जगह पर स्किल इण्डिया प्रोजेक्ट लाकर कहते है कि हम स्किल इण्डिया द्वारा लोगो को रोजगार देंगे !! लेकिन वे यह नहीं बताते कि जब कारखाने ही नहीं है तो स्किल इण्डिया जिन लोगो में कथित स्किल डाल रहा है, उन्हें नौकरियां कौन देगा, और कितनी देगा। स्किल इण्डिया योजना के लिए वर्ष 2018 में 17 हजार करोड़ का बजट रखा गया था !!


स्किल इण्डिया के तहत प्रशिक्षण देने वालो का कहना है कि एक व्यक्ति को प्रशिक्षण देने के लिए सरकार से 5000 रूपये रिलीज होते है किन्तु उन्हें सिर्फ 1200 रू प्रति व्यक्ति के हिसाब से पैसा मिलता है। शेष पैसा मंत्रालय से लेकर अन्य अधिकारियो में ऊपर ही ऊपर बंट जाता है। मतलब, सरकार प्रति व्यक्ति 5000 रुपया खर्च कर रही है। लेकिन समस्या स्किल की नहीं है, बल्कि समस्या यह है कि पर्याप्त कारखाने ही नहीं है। यदि हमारे पास देने के लिए काम है तो 15,000 की नौकरी करने के लिए व्यक्ति स्वयं 5,000 रूपये खर्च करके काम सीख लेता है। और दूसरी बात यह कि क्या हम इस तरह करोड़ो युवाओं को रोजगार दे सकते है !! नहीं दे सकते !! तो स्किल इण्डिया जैसी योजना एक गंभीर समस्या का बदतर तरीके से समाधान करती है, लेकिन प्रोपेगेंडा इस तरह खड़ा किया जाता है, जिससे यह लगे कि समाधान किया जा रहा है !!


2.2.3. स्वच्छ भारत अभियान Vs मेयर पर वोट वापसी पासबुक

शहर साफ़ रखना एवं मेयर का एवं गाँव साफ़ रखना सरपंच का काम है। ये लोग एवं इनका स्टाफ यह काम नहीं करते है। यदि मेयर को वोट वापसी पासबुक के अधीन करके इसके स्टाफ पर जूरी ट्रायल डाल दी जाए तो अपने आप ये लोग सुधरना शुरू कर देंगे। फिर सफाई बगेरह के लिए इन्हें अतिरिक्त बजट भेजा जा सकता है। और इस तरह एक इबारत के गेजेट में आने के साथ ही पूरे देश के सभी शहरों। गाँवों में स्वच्छता अभियान शुरू किया जा सकता है। किन्तु इन्हें सीधे बजट दिया जाए और इनके डोरे जनता को दे दिए जाए तो मंत्रियो के हाथो से पैसा बनाने का अवसर निकल जाएगा। तो सरकार ने इसके लिए कानून बनाने की जगह स्वच्छ भारत अभियान नाम की योजना चलाने में रुचि दिखायी।


स्वच्छ भारत अभियान का बजट 9000 करोड साल का है। और इसके बजट का एक बड़ा हिस्सा पेड मीडिया को विज्ञापन के रूप में दी जाने वाली पेमेंट के रूप में चला गया। कुछ योजनाएं तो सिर्फ पेड मिडिया के लिए ही बनाई जाती है। इनकी वास्तविक रूप से कोई जरूरत नही होती है। किन्तु इन योजनाओं के माध्यम से बजट बना लिया जाता है और पेड़ मीडिया को योजना के "प्रचार" के नाम पर - पेमेंट दी जाती है। इन विज्ञापनों पर "जागरूकता मिशन" का टैग लगा दिया जाता है !! और मीडिया हाउस इसके एवज में सरकार के पक्ष में सकारत्मक प्रसारण करते रहते है!!


इसी तरह छोटी मोटी सैकड़ो योजनाएं केंद्र एवं राज्य सरकारें चलाते रहती है। कोई योजना 50 करोड़ की होगी तो इसमें से ये लोग 25 करोड़ खा जायेंगे। योजना 1000 करोड़ की है तो 500 करोड़ चित कर लेंगे। योजना से समस्या तो हल होती नहीं है। अत: नयी सरकार आकर योजना का नाम बदल देती है, और बजट बनाकर खुद पैसा खींचना शुरू कर देती है। और यह सर्कस नया नहीं है। 1947 से ही यह घोटाला चल रहा है। हर बार जो सरकार आती है, और भी ज्यादा योजनाएं लांच करती है। आप किसी भी केंद्र या राज्य सरकार की सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओ से पूछिए कि आपकी सरकार की उपलब्धि क्या है?


और बदले में वे आपकी वाल पर 100-150 योजनाओं की एक सूची चिपका देंगे। इनमे कुछ योजनाओं के नाम में मिशन शब्द होगा और कछ में स्कीम इन्ही योजनाओं में से जितनी भी योजनाओं में बजट है, वे घोटाले है!! इन घोटालो का आकार क्या है, और किस योजना में कितने सौ करोड़ की हेराफेरी की गयी है, यह बहस की बात है। बहरहाल, ये घोटाले देश की अर्थव्यवस्था को उतना नुकसान नहीं देते, जितना एक बदतर टेक्स सिस्टम देता है। अत: कार्यकर्ताओ को बजट की तुलना में टेक्स प्रणाली पर ज्यादा भार देना चाहिए।

रिक्त भूमि कर का प्रस्तावित ड्राफ्ट पढि़ए 👇👇

https://drive.google.com/drive/u/0/mobile/folders/1JUDoFKDKaccw11MpNOXpfJU4ym69T2dQ?usp=sharing


आप इस कानून का समर्थन करते है तो प्रधानमंत्री जी को एक पोस्टकार्ड भेजें। प्रधानमंत्री जी, रिक्त भूमि कर कानून गेजेट । में छापें - #EmptyLandTax



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